गीत
“उर्मिल की विरह-वेदना’
छा गयी वीरानगी उर देख लक्ष्मण का गमन,
आज उर्मिल घात निष्ठुर सह रही पीड़ा सघन।
टूट अंतर्मन गया सुख कामना अब खो गयी,
भोर के बुझते दिये सी आस धूमिल हो गयी।
ध्वस्त सपने हे गए दी वक्त ने कैसी चुभन,
आज उर्मिल घात निष्ठुर सह रही पीड़ा सघन।
कोसती निज भाग्य को अंतस घुला संत्रास है,
मौन अधरों पर बसाकर छल रहा विश्वास है।
द्वार ठाडे तक रहे पुनरागमन को अब नयन,
आज उर्मिल घात निष्ठुर सह रही पीड़ा सघन।
दूरियाँ हर पल सतातीं दर्द हिय में पल रहा,
ध्यान धर सौमित्र का प्रिय प्रेम हिय को खल रहा।
सिसकती हर श्वांस अब मन में समाया है रुदन,
आज उर्मिल घात निष्ठुर सह रही पीड़ा सघन।
प्रीति का उत्कर्ष झूठा लुप्त सब उल्लास है,
ज़िंदगी प्रीतम बिना अब बन गयी वनवास है।
शूल सम शय्या लगे कैसे करे इस पर शयन,
आज उर्मिल घात निष्ठुर सह रही पीड़ा सघन।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)