गीत
‘नरगिसी आभास’
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नरगिसी आभास लेकर चूमती जलधार को,
देख चितवन चंचला का मन करे शृंगार को।
मखमली अहसास पाकर मुस्कुराती बावरी,
श्वेत हरसिंगार कुंतल में सजाती साँवरी।
निरख उन्मादित तरंगें दिल करे अभिसार को,
देख चितवन चंचला का मन करे शृंगार को।
जलधि की उत्ताल लहरें छेड़तीं मृदु राग हैं,
गुदगुदाती सीपियाँ भरतीं हृदय अनुराग हैं।
चाहती अब भोगना सुख-नेह के व्यवहार को,
देख चितवन चंचला का मन करे शृंगार को।
शबनमी यौवन गमकता गुनगुनाती शाम है,
उल्लसित सागर किनारे उर बसा प्रिय नाम है।
नयन उत्कंठित हुए हैं प्रेम के सत्कार को,
देख चितवन चंचला का मन करे शृंगार को।
प्रश्न अंतस में उठा कुछ भाव मुखरित हो गए,
अनमना सा पा उसे उद्गार शंकित हो गए।
शून्य नीरव आसमां में खोजता आधार को,
देख चितवन चंचला का मन करे शृंगार को।
बात सुन झटका लगा सुरभित सुमन मुरझा गया,
वक्त ने दी पीर धोखा खा हृदय झुलसा गया।
छिन गए लम्हे मिलन के आज तरसे प्यार को,
देख चितवन चंचला का मन करे शृंगार को।
विवशताएँ बेड़ियाँ बन क्यों रुलाती आज हैं?
नींद में झकझोर यादें क्यों सताती आज हैं?
कामनाएँ तप्त हो चाहें स्वयं अधिकार को,
देख चितवन चंचला का मन करे शृंगार को।
ध्वस्त सपने हो गए कैसे भुलाए प्रीति को,
प्रेम ने फिर छल लिया है इस जगत की रीति को।
कृष्ण की मीरा बनी कैसे सहे इस वार को?
देख चितवन चंचला का मन करे शृंगार को।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)