गीत
लिखना मैंने छोड़ दिया है’’
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अपनी रैन-कथाओं को खत
लिखना मैंने छोड़ दिया है
वादों की प्रतिध्वनियों में अब
हँसता कोई प्रेम नहीं है
कब आती-जाती है नेकी
पक्का कोई नेम नहीं है
दुविधाओं के घर का तिलवा
चिखना मैंने छोड़ दिया है
चली हवाओं के झोंकों के
मन में क्या है जान गया हूँ
जहाँ तलक यह धूप चलेगी
जाना तय है मान गया हूँ
सुविधाओं के मौलिमुकुट को
दिखना मैंने छोड़ दिया है
अर्थों के हैं नये व्याकरण
शब्दों से संबंध हुआ है
संवादों के अन्तर्मन् से
नया-नया अनुबंध हुआ है
रचनाओं के बाजारों में
बिकना मैंने छोड़ दिया है
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ