गीत – मैं अकेला दीप हूं
हर किसी दीपक को अपने मन की रातें मिल गयीं
मैं अकेला दीप हूँ जो जल रहा हूँ धूप में
ज़िन्दगी मेरी नियति का खेल बनकर रह गई
जो व्यथा सहनी न थी , ये वो व्यथा भी सह गई
मैं मसलता ही रहा दृग अश्रुओं को उम्र भर
हर गहन उच्छ्वास लेकिन दर्द मन का कह गई
बच गया जो शेष जीवन मैं उसी की खोज में
जीत का संकल्प लेकर चल रहा हूँ धूप में
छाँव का सानिध्य पा नवपुष्प मधुमय हो गये
भोर के जागे , थके पन्छी मगन मन सो गये
छाँव के अस्तित्त्व का जब भान तारों को हुआ
टूटकर तारे गगन से इस धरा में खो गये
हर कोई उपकृत हुआ है छाँव का सहचर्य पा
मैं मगर हिमश्रृंग सा नित गल रहा हूँ धूप में
…शिवकुमार बिलगरामी