गीत- मुझको धूप न छू पाई, माँ के आंचल की छांव में!
माँ पथ में कांटें थे, पर चुभे न मेरे पांव में!
मुझको धूप न छू पाई, माँ के आंचल की छांव में!
वही प्यार वो स्नेह रहा, हरदम अम्मा की झोली में,
उसके प्यार में ताकत थी, जो थी बंदूक की गोली में!
सारे जहाँ की जन्नत भी लगती थी, उसके ही पांव में! …. मुझको
गाँव छोड़कर शहर आ गये, छूटी संध्या गोधूली,
मैं तो भूल गया उसको, वो मुझको कभी नहीं भूली!
आशाओं के दीप जलाती, देहरी पर वो गाँव में! … मुझको
ऊंचे ऊंचे महल दुमहले, हमने रहकर देख लिए,
कंकड़ पत्थर के बदले, हीरे मोती हैं फेंक दिए!
तपती गर्मी से राहत थी, आम नीम की छांव में! ….मुझको
इस जीवन में पढ़ न पाया, जो अम्मा से पढ़ना था,
नश्वर जीवन गढ़ न पाया, जैसे इसको गढ़ना था!
जन्म मिले फिर से खेलूँ, तेरी गोदी गाँव गिरांव में!…..मुझको
……. ✍ प्रेमी
09 मई, 2021