गीत- ‘ पहले तुमको चाहा था!
हाँ ,
पहले तुमको चाहा था!
शशि सी तुम मुझको लगती थीं और तुम्हें लगता था दिनकर !
प्रथम बार जब दृष्टि पड़ी थी
तुम भी विह्वल मैं भी विह्वल।
दोनों के हृदयों में कोई ध्वनि
आती थी कल-कल-कल-कल।
चुपके-चुपके किंतु देखते थे हम दोनों आँखें भर-भर!
प्रेम रत्न को अति गहराई में जाकर के प्रिय थाहा था!
हाँ ,
पहले तुमको चाहा था!
यौवन के उस नव चढ़ाव में
जाने कितने दोष लगे थे।
और हमारे प्रिय मित्रों ने
तीखे-तीखे व्यंग्य कसे थे।
मैल नहीं रह जाये मन में ऐसा हरदम सोचा प्रियवर!
मैनें अपना मन गंगा में जा जा करके अवगाहा था!
हाँ ,
पहले तुमको चाहा था!
जगत नियंता को लेकिन
अपना मिलना मंजूर नहीं था।
नहीं प्रिये! क्या वसुंधरा पर ,
चुटकी भर सिंदूर नहीं था ?
पत्थर समझो क्योंकि नयन से जल न झरा था झर-झर-झर-झर!
कभी-कभी अब भी हट जाता ,रखा घाव पर जो फाहा था!
हाँ ,
पहले तुमको चाहा था!
—©®विवेक आस्तिक