गीत का तानाबाना
गीत का तानाबाना
गीत काव्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। पर्व-त्यौहार से लेकर फिल्म-संसार तक और खेत-खलिहान से लेकर साहित्य-जगत तक गीतों का वर्चस्व सहज ही देखा जा सकता है। प्रायः सभी रचनाकार किसी न किसी रूप में गीत रचने की इच्छा रखते हैं और प्रायः सभी काव्य प्रेमी सहृदय व्यक्ति अवसर मिलने पर गीत गाने-गुनगुनाने की इच्छा रखते हैं। जब गीत अपेक्षित शिल्प में सधा होता है तो उसे सस्वर पढ़ने, गाने या गुनगुनाने में विलक्षण आनंद की अनुभूति होती है और इससे स्वयं रचनाकार को एक अवर्णनीय सुख की अनुभूति होती है। इसके विपरीत जब गीत अपेक्षित शिल्प से विचलित होता है तो उसे गाने में खींच-तान करनी पड़ती है जिसमें पाठक और रचनाकर दोनों का रसानंद बाधित होता है। इसलिए प्रत्येक रचनाकार के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह गीत रचने के पहले उसका तानाबाना अवश्य समझ ले। गीत की कुछ ऐसी बातें हैं जो गीत को अन्य काव्य विधाओं से अलग पहचान देती हैं, पहले उन बातों को समझना आवश्यक है। इन्हीं बातों को हम गीत के लक्षणों के रूप में भी देख सकते हैं। गीत के छः शैल्पिक लक्षण है- (1) मुखड़ा (2) टेक (3) अन्तरा (4) पूरक पंक्ति (5) तुकान्तता (6) लयात्मकता) और दो शिल्पेतर लक्षण हैं-(1) भावप्रवणता (2) लालित्य। आइए हम पहले उदाहरणों के माध्यम से गीत के छः शैल्पिक लक्षणों को समझने का प्रयास करें-
उदाहरण (1)
गीत : चिड़िया उड़ी
(इस गीत में केवल एक ही आधार छन्द का प्रयोग हुआ है।)
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी।
आपकी सुधि आ जुड़ी, सुधि आ जुड़ी।
नीड़ कोई हो गया रीता कहीं,
रात-सा कोई दिवस बीता कहीं।
रो पडी उद्यान की हर पंखुड़ी,
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी।
उड़ गयी तो उड़ गयी लौटी नहीं,
खो गयी आकाश में जाकर कहीं।
राह कैसी जो न फिर वापस मुड़ी,
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी।
मुक्त आँगन में फुदकना अब कहाँ,
देख नन्हों का ठुनकना अब कहाँ।
चाल आकाशी हुई वह बाँकुड़ी,
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी।
(1) मुखड़ा– इसमें प्रायः एक से चार तक पंक्तियाँ होती है जो प्रायः सामान लय में होती हैं। यह लय किसी न किसी छन्द पर आधारित होती है। कुछ गीतों में मुखड़े की पंक्तियों की लय एक दूसरे से भिन्न भी हो सकती है।
उक्त गीत में दो पंक्तियों का मुखड़ा है, जिसकी पहली पंक्ति टेक है –
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी. (टेक)
आपकी सुधि आ जुड़ी, सुधि आ जुड़ी।
इस गीत की सभी पंक्तियों की लय का आधार-छंद मापनीयुक्त मात्रिक छंद ‘आनंदवर्धक’ है जिसकी मापनी निम्नप्रकार है-
गालगागा गालगागा गालगा
मुखड़े की एक पंक्ति का मात्रा-कलन कर हम इस मापनी की पुष्टि निम्नप्रकार कर सकते हैं-
फुर्र से चिड़ि/या उड़ी, चिड़ि/या उड़ी
गालगागा/ गालगागा/ गालगा
(2) टेक– मुखड़े की एक पंक्ति ऐसी होती है जो अंतरे के अंत में जोड़कर गायी जाती है, इसे टेक कहते है। टेक को स्थायी या ध्रुव पंक्ति भी कहते हैं।
उक्त गीत की टेक इस प्रकार है-
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी।
(3) अन्तरा– गीत में दो या अधिक अंतरे होते हैं। प्रत्येक अंतरे में प्रायः तीन या अधिक लयात्मक पंक्तियाँ होती हैं। इनमे से अंतिम पंक्ति को पूरक पंक्ति तथा शेष को प्राथमिक पंक्तियाँ कहते हैं। प्राथमिक पंक्तियों की तुकांत-व्यवस्था स्वैच्छिक होता है किन्तु जो भी होती है वह सभी अंतरों में एक समान होती है।
उक्त गीत के प्रत्येक अंतरे में तीन पंक्तियाँ है, जिनके साथ टेक को मिलाकर गाया जाता है। इस दृष्टि से पहला अंतरा दृष्टव्य है-
नीड़ कोई हो गया रीता कहीं, (प्रारम्भिक पंक्ति)
रात-सा कोई दिवस बीता कहीं। (प्रारम्भिक पंक्ति)
रो पड़ी उद्यान की हर पंखुड़ी, (पूरक पंक्ति)
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी। (टेक)
(4) पूरक पंक्ति– अंतरे की अंतिम पंक्ति को पूरक पंक्ति कहते हैं, इसके साथ टेक को मिलाकर गाया जाता है। पूरक पंक्तियों और टेक का तुकांत एक समान होता है। प्रायः दोनों की लय भी एक समान होती है किन्तु कभी-कभी भिन्न भी होती है लेकिन तब लय में निरंतरता अनिवार्य होती है।
उक्त गीत के पहले अंतरे की पूरक पंक्ति और टेक का संयोजन इस प्रकार है-
रो पड़ी उद्यान की हर पंखुड़ी, (पूरक पंक्ति)
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी। (टेक)
इसी प्रकार अन्य अंतरों की पूरक पंक्तियों का टेक के साथ योग निम्न प्रकार हैं-
राह कैसी जो न फिर वापस मुड़ी, (पूरक पंक्ति)
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी। (टेक)
—
चाल आकाशी हुई वह बाँकुड़ी, (पूरक पंक्ति)
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी। (टेक)
(5) तुकान्तता– सभी अंतरों के तुकान्त भिन्न-भिन्न होते हैं किन्तु एक अंतरे में जिस क्रम की पंक्तियाँ तुकान्त होती है, सभी अंतरों में उसी क्रम की पंक्तियाँ तुकान्त होती है। एक अंतरे में तुकान्तता का क्रम स्वैच्छिक होता है किन्तु जो क्रम निर्धारित हो जाता है उसका अनुपालन सभी अंतरों में अनिवार्य होता है। पूरक पंक्ति का टेक के साथ तुकान्त अलग से अनिवार्य होता है।
उक्त उदाहरण में अंतरे की दो प्रारम्भिक पंक्तियाँ तुकान्त है जबकि तीसरी पूरक पंक्ति का तुकान्त टेक के साथ मिलाया गया है। यही व्यवस्था सभी अंतरों पर समान रूप से लागू है किन्तु सभी अंतरों के तुकांत अलग-अलग हैं, जैसे –
पहले अंतरे का तुकांत – ‘ईता कहीं’
दूसरे अंतरे का तुकांत – ‘अहीं’
तीसरे अंतरे का तुकांत – ‘अकना अब कहाँ’
पूरक पंक्ति और टेक का तुकान्त ‘उड़ी’ सभी अंतरों में समान है।
(6) लयात्मकता– सामान्यतः गीत की सभी पंक्तियों की लय समान होती है किन्तु कुछ गीतों में पंक्तियों की लय भिन्न-भिन्न भी हो सकती है। प्रत्येक स्थिति में मुखड़ा और एक अन्तरा में लयात्मक पंक्तियों का जो क्रम होता है वह आगे के सभी अंतरों में ज्यों का त्यों दुहराया जाता है। लय को जिस छन्द के द्वारा निर्धारित किया जाता है उसे ‘आधार-छन्द’ कहते है हैं।
उक्त उदाहरण में गीत की सभी पंक्तियों की लय समान है जिसका आधार-छन्द आनंदवर्धक है। इसे मुखड़ा की व्याख्या के अंतर्गत दिखाया जा चुका है।
उदाहरण (2)
गीत : बरगदिया की छाँव
(इस गीत में दो आधार छन्दों का प्रयोग है और अन्य लक्षणों में भी कुछ भिन्नता है।)
गुल्ली-डंडा लुक्का-छिप्पी, बरगदिया की छाँव।
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव।
लम्बो काकी के बग्गर में, चुपके-से घुस जाना,
पके-पके अमरूद तोड़ कर, जेबों में भर लाना।
रधिया के सँग मिल कर खाना, बरगदिया के ठाँव।
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव।
बरगदिया का बरगद होना, जान नहीं मैं पाया,
रधिया को लेने कब कँधई, मौर धरा कर आया,
रहा देखता दूर जा रहे, रचे महावर पाँव।
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव।
बरगद की बढ़ रही जटा जब, धरती में घुस आयी,
थकी-थकायी रधिया आकर, मेरे सँग बिरमायी,
मौन निहारा किया उसे तो, कौवे ने की काँव।
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव।
(1) मुखड़ा– इस गीत में दो पंक्तियों का मुखड़ा है, जिसकी पहली पंक्ति टेक है –
गुल्ली-डंडा लुक्का-छिप्पी, बरगदिया की छाँव।
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव। (टेक)
इस मुखड़े की पंक्तियों की लय का आधार-छंद मापनीमुक्त मात्रिक छंद ‘सरसी’ है। इस छन्द के प्रत्येक चरण में 27 मात्रा होती हैं, 16-11 मात्रा पर यति होती है और अंत गाल होता है। मुखड़े की पंक्तियों में इस विधान का अनुपालन दृष्टव्य है-
गुल्ली-डंडा लुक्का-छिप्पी (16 मात्रा) , बरगदिया की छाँव (11 मात्रा)
अंत में छाँव का भार गाल है।
याद बहुत आता है मुझको (16 मात्रा), बचपन का वह गाँव (11)
अंत में गाँव का भार गाल है।
(2) टेक– इस गीत की टेक इस प्रकार है-
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव।
इसे प्रत्येक अंतरे की पूरक पंक्ति के साथ दुहराया गया है।
(3) अन्तरा– इस गीत में तीन अंतरे हैं। प्रत्येक अंतरे में दो प्रारम्भिक पंक्तियाँ और एक पूरक पंक्ति है जिसके साथ टेक को दुहराया गया है। इस दृष्टि से पहला अंतरा दृष्टव्य है-
लम्बो काकी के बग्गर में, चुपके-से घुस जाना, (प्रारम्भिक पंक्ति)
पके-पके अमरूद तोड़ कर, जेबों में भर लाना। (प्रारम्भिक पंक्ति)
रधिया के सँग मिल कर खाना, बरगदिया के ठाँव। (पूरक पंक्ति)
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव। (टेक)
(4) पूरक पंक्ति– इस गीत के तीनों अंतरों में पूरक पंक्तियाँ और उनके साथ टेक का संयोजन इस प्रकार है-
रधिया के सँग मिल कर खाना, बरगदिया के ठाँव। (पूरक पंक्ति)
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव। (टेक)
—
रहा देखता दूर जा रहे, रचे महावर पाँव। (पूरक पंक्ति)
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव। (टेक)
—
मौन निहारा किया उसे तो, कौवे ने की काँव। (पूरक पंक्ति)
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव। (टेक)
(5) तुकान्तता– इस गीत के उदाहरण में प्रत्येक अंतरे की दो प्रारम्भिक पंक्तियाँ आपस में तुकान्त हैं जबकि तीसरी पूरक पंक्ति का तुकान्त टेक के साथ मिलाया गया है। यह व्यवस्था सभी अंतरों पर समान रूप से लागू है किन्तु सभी अंतरों के तुकांत अलग-अलग हैं, जैसे –
पहले अंतरे का तुकांत – ‘आना’
दूसरे अंतरे का तुकांत – ‘आया’
तीसरे अंतरे का तुकांत – ‘आयी’
पूरक पंक्ति और टेक का तुकान्त -‘आँव’, जो सभी अंतरों में समान है।
(6) लयात्मकता– इस गीत में अंतरे की पंक्तियों की लय सरसी छन्द पर आधारित है जिसे ऊपर मुखड़े की व्याख्या में समझाया जा चुका है लेकिन अंतरे की लय मापनीमुक्त मात्रिक छन्द ‘सार’पर आधारित है। इस छन्द के प्रत्येक चरण में 28 मात्रा होती हैं, 16-12 पर यति होती है, अंत वाचिक गागा होता है। पहले अंतरे की पंक्तियों में इस विधान का अनुपालन दृष्टव्य है-
लम्बो काकी के बग्गर में (16 मात्रा), चुपके-से घुस जाना (12 मात्रा),
अन्त = जाना = गागा
पके-पके अमरूद तोड़ कर (16 मात्रा), जेबों में भर लाना (12 मात्रा)।
अन्त = लाना = गागा
समग्रतः पूरे गीत में पंक्तियों के आधार-छन्द और तुकान्तता का अवलोकन करते हुए यह देखना रोचक और महत्वपूर्ण होगा की मुखड़ा और एक अन्तरा से निर्धारित तुकान्तता और लयात्मकता का पूरे गीत में किस प्रकार निर्वाह हुआ है-
गुल्ली-डंडा लुक्का-छिप्पी, बरगदिया की छाँव। (सरसी)
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव। (सरसी)
(मुखड़े का तुकान्त- आँव)
लम्बो काकी के बग्गर में, चुपके-से घुस जाना, (सार)
पके-पके अमरूद तोड़ कर, जेबों में भर लाना। (सार)
रधिया के सँग मिल कर खाना, बरगदिया के ठाँव। (सरसी)
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव। (सरसी)
(प्रारम्भिक और पूरक पंक्तियों के तुकान्त- आना, आँव)
बरगदिया का बरगद होना, जान नहीं मैं पाया, (सार)
रधिया को लेने कब कँधई, मौर धरा कर आया, (सार)
रहा देखता दूर जा रहे, रचे महावर पाँव। (सरसी)
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव। (सरसी)
(प्रारम्भिक और पूरक पंक्तियों के तुकान्त- आया, आँव)
बरगद की बढ़ रही जटा जब, धरती में घुस आयी, (सार)
थकी-थकायी रधिया आकर, मेरे सँग बिरमायी, (सार)
मौन निहारा किया उसे तो, कौवे ने की काँव। (सरसी)
याद बहुत आता है मुझको, बचपन का वह गाँव। (सरसी)
(प्रारम्भिक और पूरक पंक्तियों के तुकान्त- आयी, आँव)
विशेष
(1) कुछ गीतों में सभी पंक्तियों की लय समान होती है अर्थात सभी पंक्तियों का आधार छंद एक ही होता है जबकि कुछ अन्य गीतों में एक से अधिक आधार छंदों का प्रयोग होता है। दूसरे विकल्प में प्रायः पूरक पंक्ति का आधार छंद प्राथमिक पंक्तियों के आधार छंद से भिन्न होता है।
(2) जब अंतरे मैं प्राथमिक पंक्तियाँ दो होती है तो वे अनिवार्यतः तुकांत होती हैं।
(3) जब अंतरे में प्राथमिक पंक्तियाँ तीन या अधिक होती हैं तो तुकान्त की व्यवस्था रचनाकार स्वेच्छा से करता है और उस व्यवस्था का निर्वाह सभी अंतरों में करता है।
अंतरे में प्राथमिक पंक्तियों की संख्या बहुत अधिक होने पर गीत का सौन्दर्य घटने लगता है।
(4) गीतों का आधार छंद मात्रिक ही नहीं अपितु वर्णिक भी हो सकता है। उदाहरण के लिए मात्रिक छंद पर आधारित मुखड़ा के साथ मनहर घनाक्षरी छंद पर आधारित अंतरों के प्रयोग से बहुत सुंदर गीत रचा जा सकता है।
(5) गीत में गेयता अर्थात लय मुख्य है जिसे निर्धारित करने का साधन छंद है। लय को एक सीमा तक उर्दू बहर से भी निर्धारित किया जा सकता है किन्तु यह ध्यातव्य है कि सभी बहरें किसी न किसी छन्द का ही परिवर्तित रूप हैं और संख्या में बहुत सीमित हैं। यद्यपि व्यक्तिगत सुविधा की दृष्टि से उर्दू बहर से लय को निर्धारित करने में कोई हानि नहीं है तथापि लय को निर्धारित करने के लिए छन्द का क्षेत्र अधिक व्यापक और अधिक स्पष्ट है।
गीत के दो शिल्पेतर लक्षण निम्न प्रकार हैं-
(1) भावप्रवणता
गीत किसी एक भावभूमि पर रचा जाता है। मुखड़े में गीत की भूमिका होती है और इसे कुछ इस प्रकार रचा जाता है जिससे गीत की विषयवस्तु के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हो। इसमें से उस पंक्ति को टेक के रूप में चुना जाता है जिसका भावात्मक तालमेल प्रत्येक अंतरे की पूरक पंक्ति के साथ स्थापित हो सके। प्रत्येक अंतरा गीत के केंद्रीय भाव के परितः चक्रण करता हुआ तथा उसी की पुष्टि करता हुआ प्रतीत होता है। गीत जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे पाठक या श्रोता उसकी भावभूमि में उतरता चला जाता है और समापन होते-होते वह उस भावभूमि में डूब जाता है। एक उत्तम गीत के प्रत्येक अंतरे की प्राथमिक पंक्तियों में विषय का संधान किया जाता है और पूरक पंक्ति में प्रहार किया जाता है और इसी प्रहार के साथ जब टेक को दुहराया जाता है तो भावविभोर श्रोता बरबस झूम उठता है और उसके मुँह से ‘वाह’ निकल जाता है।
(2) लालित्य
गीत में सटीक उपमान, भावानुरूप शब्द-संयोजन, लोकोक्तियाँ और मुहाविरे सुरुचिपूर्वक प्रयोग करने से विशेष लालित्य उत्पन्न होता है। इसके साथ नवीन प्रतीकों और बिम्ब योजनाओं के प्रयोग से गीत का लालित्य बहुगुणित हो जाता है। ध्यान रहे कि नवीनता के संवरण में गीत की भावप्रवणता कदापि बाधित नहीं होनी चाहिए। गीत की संरचना ऐसी होनी चाहिए कि पढ़ने और समझने के बीच अधिक समय न लगे अर्थात गीत को पढ़ते या सुनते ही उसका भाव स्पष्ट हो जाये अन्यथा अभिव्यक्ति में अंतराल-दोष आ जाता है जो रसानन्द में बाधक होता है।
गीत की अलंकारिक परिभाषा
गीत किसी उद्दीपित भाव की एक मर्यादित अविरल धारा है, मुखड़ा जिसका उद्गम है, अंतरे जिसके मनोरम घाट हैं, पूरक पद जिसके तटबन्ध हैं और समापन जिसका अनंत सागर में विलय है।
नवगीत
जब गीत के काव्य-तत्वों (जैसे शिल्प, कथ्य, प्रतीक, बिम्ब आदि) में पूर्ववर्ती सृजन के सापेक्ष नव्यता और अभिव्यंजन में युगीन परिवेश के प्रति गहन संवेदना होती है तो उसे नवगीत कहा जाता है। इस प्रकार नवगीत गीत का ही एक नव संस्करण है। प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ के शब्दों में प्रत्येक नवगीत गीत होता है परंतु प्रत्येक गीत नवगीत नहीं होता है।
गीत का लेखन
गीत को सामान्यतः इस प्रकार लिखा जाता है कि उसका मुखड़ा और सभी अंतरे अलग-अलग दिखाई दें। गीत की प्रत्येक लयात्मक पंक्ति किसी न किसी छंद का चरण होती है। इन लयात्मक पंक्तियों को इस प्रकार ऊपर नीचे लिखा जाता है कि जिससे गायन में सुविधा रहे। गायन की दृष्टि से समान लय और मात्रा-भार की पंक्तियों को ऊपर नीचे लिखा जाता है। नवगीत में कभी-कभी पंक्तियों को आंतरिक यति अथवा भावाभिव्यक्ति के आधार पर विभाजित कर नव्यता का आग्रह पूरा किया जाता है। इससे गीत के शिल्प और स्वरूप को समझने में कभी-कभी थोड़ी असुविधा अवश्य होती है किन्तु शिल्प की सटीकता पर कोई आँच नहीं आती है। यह विभाजन सभी अंतरों में एक जैसा हो तो अधिक अच्छा है किन्तु प्रायः ऐसा हो नहीं पाता है। प्रत्येक लयात्मक पंक्ति के अंत में अल्प विराम या पूर्ण विराम यथावश्यक होना चाहिए और अर्थ को स्पष्ट करने के लिए वर्तनी के अन्य चिह्नो का भी समुचित प्रयोग होना चाहिए। सामान्यतः गीत के प्रत्येक अंतरे से साथ टेक को भी लिखा जाता है और इसी प्रकार गाया भी जाता है। इसी से स्पष्ट होता है कि मुखड़े की कौन सी पंक्ति टेक के रूप में प्रयोग करना है। नवगीतकार प्रायः अंतरे के साथ टेक दुहराना उचित नहीं समझते हैं जिससे टेक का स्पष्ट निर्देश नहीं हो पाता है किन्तु इससे शिल्प की सटीकता कदापि बाधित नहीं होता है।
आओ रचें गीत
प्रारम्भिक अवस्था में गीत रचने के लिए अनुकरण सबसे अच्छा और व्यावहारिक साधन है। यदि आपके मन में कोई गीत बसा हुआ है तो उसे मुक्त कण्ठ से लय में गाइए और उसकी लय को मन में बसाइए। साथ ही यह भी देखिए कि उसकी किन-किन पंक्तियों में तुकांत मिलाया गया है। इस प्रकार लय और तुकांत की पूरी व्यवस्था को ठीक से आत्मसात कर लीजिये और गुनगुनाते हुए उसी लय पर उसी व्यवस्था में अपने मनोभावों को व्यक्त कीजिये। गीत बनने लगेगा। जब पूरा गीत बन जाये तो ऊपर वर्णित मानकों की कसौटी पर उसे कसकर देख लीजिए, कहीं सुधार की आवश्यकता हो तो सुधार कर लीजिए। इस प्रक्रिया में समर्थ गीतकारों या जानकारों की सहायता लेना भी बहुत उपयोगी होता है। जब इस गीत को लोगों के बीच सुनाइए तो ध्यान दीजिये कि आपके अंतरों पर ‘वाह’ कितनी प्रबलता से मिलती है। जिस अंतरे पर वाह न मिले या बहुत दुर्बल मिले उसपर पुनर्विचार कीजिये और यथावश्यक सुधार करने में संकोच मत कीजिए। इस प्रक्रिया पर चलते हुए आप सरलता से एक अच्छे गीतकार बन सकते हैं।
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संदर्भ ग्रंथ – ‘छन्द विज्ञान’, लेखक- आचार्य ओम नीरव, पृष्ठ- 360, मूल्य- 400 रुपये, संपर्क- 8299034545