गीत- कभी क़िस्मत अगर रूठे…
कभी क़िस्मत अगर रूठे नियम सब भूल जाते हैं।
बहारों बिन चमन जैसे नहीं फल-फूल पाते हैं।।
हुआ अनुभव यही है कर्म भी क़िस्मत कराती है।
बिना इसके बड़ी चाहत नज़र छोटी ही आती है।
अगर क़िस्मत बुरी होती बुरे तब कर्म भाते हैं।
बहारों बिन चमन जैसे नहीं फल-फूल पाते हैं।।
झुके विद्वान आगे मूर्ख के बद भाग्य जो पाया।
हुआ छलनी वो पल्लव शूल से जो भूल टकराया।
यही सच है कि क़िस्मत से विजित भी घात खाते हैं।
बहारों बिन चमन जैसे नहीं फल-फूल पाते हैं।।
नहीं ग़म से मरे क़िस्मत से है इंसान हर ‘प्रीतम’।
है कठपुतली मनुज सच में चलाए रब चले आदम।
कोई हलचल ख़ुदा की चाल बिन सूनी सुझाते हैं।
बहारों बिन चमन जैसे नहीं फल-फूल पाते हैं।।
आर. एस. ‘प्रीतम’