गीत (आज हिमालय भारत भू की)
‘लावणी छंद’ आधारित
भारत के उज्ज्वल मस्तक पर, मुकुट बना जो है शोभित,
जिसके पुण्य तेज से पूरा, भू मण्डल है आलोकित,
महादेव के पुण्य धाम को, आभा से वह सजा रहा,
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।
तूफानों को अंक लगा कर, तड़ित उपल की वृष्टि सहे,
शीत ताप छाती पर झेले, बन मशाल अनवरत दहे,
झेल झेल झंझावातों को, लगातार मुस्कुरा रहा,
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।।
केतु सभ्यता का लहराये, गीत जगद्गुरु के गाये,
उन्नत भाल उठा कर अपना, महिम देश की दर्शाये,
प्रखर शिखर का दीपक न्यारा, जग के तम को मिटा रहा,
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।
उत्तर की दीवार अटल है, त्राण शत्रु से यह देता,
स्वयं निरंतर गल करके भी, कोटिश जन की सुध लेता,
यह सर्वस्व लूटा कर अपना, आन देश की बचा रहा,
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।
यह भंडार देव-संस्कृति का, है समाधि स्थल ऋषियों का,
सर्व रत्न की दिव्य खान ये, उद्गम पावन नदियों का,
अक्षय कोष देश का कैसे, रखे सुरक्षित बता रहा।
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।
दीप-शिखा इस गिरि पुंगव की, एक वस्तु की मांग करे,
वीर पतंगों को ललकारे, जो जल इसके लिये मरे,
बलिदानों से वीरों के ही, मस्तक इसका उठा रहा।
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।
इसकी रक्षा में उठना क्या, हम सब का है धर्म नहीं,
शीश उठाये इसका रखना, क्या हम सब का कर्म नहीं
हमरे तन के बहे स्वेद से, दीपक यह जगमगा रहा,
आज हिमालय भारत भू की, यश-गाथा को सुना रहा।
बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया