गीत।।। ओवर थिंकिंग
कल्पनाओं धैर्य रखो,
और भी रातें मिलेंगी।
चार कब के बज चुके हैं,
आँख सोना चाहती हैं।
याद आयी एक लड़की, रात के दूजे पहर में।
जो मिली अंतिम दिनों में, ग्रेजुएशन के सफ़र में।
कल्पनायें साक्षी हैं, फिर हुआ परिणय हमारा।
फिर मिलन की रात आई, धक से धड़का दिल कुँआरा।
निर्लजी कुछ धैर्य रखो,
और भी रातें मिलेंगी।
अब सभी सक्रिय रगें
विश्राम लेना चाहतीं हैं।
घर अभी भी अधबना है, फिर अचानक याद आया।
सोच अपनी नौकरी को, बेबसी पर मुस्कुराया।
व्यंग्य करते कुछ पड़ोसी, आ गए आँखों के आगे।
फिर नहीं सुलझाए सुलझे, कल्पना के क्लिष्ट धागे।
कामनाओं धैर्य रखो,
और भी रातें मिलेंगी।
अक्ल की बेकल शिराएँ,
शांत होना चाहती हैं।
प्रथम वर्णित कल्पना पर नींद आई थी घनेरी,
क्यों चली आई जमाने की, तरफ ये बुद्धि मेरी!
हर कला हर विज्ञता को, क्यों निरर्थक बोलते हैं ?
क्यों सभी की योग्यता बस नौकरी से तोलते हैं ?
चेतनाओं धैर्य रखो,
और भी रातें मिलेंगी।
जानती हूँ स्वाँस तेरी,
प्रश्न बोना चाहतीं हैं।
क्रोध से तन भर गया तो, भावना में मन भिगोया।
माँ, पिता और परिजनों के, साथ मैं भी खूब रोया।
कल्पना की अति हुई, हर भाव जीकर तर गया मैं।
अंततः अंतिम प्रहर जब, कल्पना में मर गया मैं।
भावनाओं धैर्य रखो,
और भी रातें मिलेंगी।
अब अचेतन की सदायें,
मौन होना चाहतीं हैं।
©शिवा अवस्थी