गीतिका:
ख़ुशी देख मेरी, वे सब जल रहे हैं.
फँसे जाल में वे ,हम यूँ खल रहे हैं.
नहीं जानते वे,कि कल क्या है होना,
इसी से बरफ में, वे खुद गल रहे हैं.
कहीं देर होने पे,सब लुट न जाए,
जली पे हमारी, नमक दल रहे हैं.’
ज़मीं-आसमां पर,है कब्ज़ा उन्हीं का,’
दुखी आत्मा को, यूँ ही छल रहे हैं.’
‘सहज’ की नवाज़िस,निखालिश है यारो,
समाधान यूँ ही, लंबित चल रहे हैं.
@डॉ.रघुनाथ मिश्र ‘सहज’
अधिवक्ता/साहित्यकार
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