गीतिका
गीतिका
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नाचने दो मयूर मनभावन।
है धरा का खिला खिला आंगन।
स्वप्न नव देखते नयन बोझिल।
जोश में हैं बढ़ा हृदय स्पंदन।
झूमता मोर पंख फैलाए।
दृश्य है खूब मोहता तन-मन।
देखिए रंग इन्द्रधनुषी हैं।
छेड़ दो ताल स्नेह सुर सरगम।
पास अपने बुला रही कुदरत।
छोड़ भी दें तमाम अब बंधन।
एक सा कुछ नहीं रहा करता।
हो रहे नित्य आज परिवर्तन।
खूब हर ओर स्वच्छ धरती हो।
सब करें आज इस लिए चिंतन।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य, ३१/०७/२०२४