गीतिका
गीतिका ..16
* दी पा व ली *
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दीप का त्यौहार आया नेह के दीपक जला ।
यूँ लगे जैसे दिवाकर तम मिटाने को चला ।।
देहरी पर दीप को अपनी जलाना प्रेम से ।
जो चले उसको लगे ज्यों राह का संकट टला ।।
हिरनियों की प्यास को कोई बुझा पाया नहीं ।
गंध कस्तूरी छलावा ने उन्हें बेहद छला ।।
हर किसी को हक मिला हँसते हुए जीवन जिये ।
मत किसी का रेतिये यूँ बेरहम होकर गला ।।
एक छोटी सी चिरैया चहचहाती नीड़ में ।
सीखिये उससे जरा क्या जिन्दगी की है कला ।।
‘ज्योति’ अपने हाथ से तू ज्योति माला
गूँध के ।
पी जमाने का अँधेरा कर भला होगा भला ।।
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महेश जैन ‘ज्योति’ ,
मथुरा ।
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