गीतिका:-दूध अपना सब पिला कर भूख सहती ही रही
बह्र:- रमल मुसम्मन महज़ूफ
अरकान:- फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
(2122 2122 2122 212)
हर वो रिस्ता पूर्णनिष्ठा से निभाती ही रही।
दूध अपना सब पिला कर भूख सहती ही रही।।
बनके सीता दंश झेला हो अहिल्या सी सिला।
द्रोपदी के चीर पर आँसू बहाती ही रही।।
पद्मनी बनकर किया जौहर अनेकों बार है।
सबको शीतलता दे कर हिम सा पिघलती ही रही।
हर युगों देती रही अग्नि परीक्षा मौन हो।
आह तक निकली नही हर वार सहती ही रही।।
झाड़ू पोंछा चूल्हा चौका में उलझती जिंदगी।
महफ़िलों में आबरू बन बस वो सजती ही रही।।
चिलचिलाती धूप में वो कड़कड़ाती शीत में।
अश्रु धारा नीर निर्मल से नहाती ही रही।
युग युगों से ही उसे हर मोड़ पर है सब ने छला।
‘कल्प’ तेरी ही क़लम से दर्द बोती ही रही।।
✍? अरविंद राजपूत ‘कल्प’