गीतिका/ग़ज़ल
ग़ज़ल
खड़ा दहलीज पर दुश्मन दूर उसको भगाना है,
सुप्त होती हुई लौ को आज फिर से जलाना है।
नई आशा जगाना है नया विश्वास पाना है,
अडिग दृढ़-शक्ति से यारो इसे जड़ से मिटाना है।
डूबत जा रही साँसे दिलों में चुभ रही फाँसे,
ज़र्ब मरहम लगाने को कदम हमको बढ़ाना है।
कोहरा जा रहा बढ़ता नही पर पस्त होना है,
हौसलों से मिले मंजिल राह सबको दिखाना है।
अभी भी है बचे थोड़े मौत जिनको गवारा है,
अंधेरी घुप्प गलियों से हमें उनको बचाना है।
जश्न की शाम जो देखी तअज्जुब क्यों हुआ सबको,
बने फ़िरदौस फिर भारत रूप इसका सजाना है।
द्वारा:- 🖋️🖋️लक्ष्मीकान्त शर्मा
( स्व-रचित / मौलिक )
देवली, विराटनगर, जयपुर, राज०303102