गीता छंद
गीता छंद
डाली नभ रक्तिम चूनर,धरणी सजी वधु वेश।
मंद मंद मारुत प्रवाह,रश्मिरथी का प्रवेश।।
खगवृंद का सुखद विचरण,गौ धन चरण शुचि धूल।
भिनसारे निरखी बेला,हृदय जाता दुख भूल।।
माँ भारती का शुभ अलिक,उत्तुंग शिखर साक्षात।
तीनों तरफ माँ के खड़े,रक्षक जलधि दिन-रात।।
जो तान कर सीना डटे,रिपु को हमेशा मात।
वे वीर अंतिम श्वास तक,दें शत्रु को आघात।।
प्रभु ने हमें निःशुल्क दी, प्रकृति विपुल उपहार।
स्वार्थी न मानव-सा कहीं,निज हित करे संहार।।
संभल समय से तू अधम, वरना निकट है अंत।
जैसा करो वैसा भरो, कहते सदा ही संत।।
रंजना माथुर
अजमेर राजस्थान
( मेरी स्वरचित, मौलिक व अप्रकाशित रचना )