गीता के स्वर (3) कर्मयोग
समस्त प्राणी
‘अन्न’ से आवृत्त हैं
जिसे उत्पन्न करता है
‘मेघ’
जो प्रतिफल है ‘कर्म-यज्ञ’ का.
यह चक्र है,
अनुकरणीय
जो चलता रहता है
‘कर्म-योग’ का प्रतिनिधि बन.
‘कर्मयोग’
साधन है ‘परम’ को पाने का
लोकरक्षा के निमित्त.
अनुकरणीय को
कर्मानुष्ठान में अग्रसर होना
अपरिहार्य है.
फिर यक्ष प्रश्न ?
मनुष्य किससे प्रेरित हो
न चाहते हुए भी
करता है ‘पाप’
मानो,
इस कार्य में
किसी नियोक्ता ने
नियुक्त कर निर्दिष्ट किया हो.
इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि का त्रय
इसका ‘अधिष्ठान’ है
‘अधिष्ठान’
ज्ञान को ढककर
मोहित करता है
जीवात्मा को
इन्द्रियाँ ‘प्रबल’ हैं
‘मन’ उससे भी प्रबल
और मन से भी प्रबल है ‘बुद्धि’
‘बुद्धि’ से प्रबल ‘काम’ है
अस्तु, ‘काम’ का संहार
अपरिहार्य है
सर्वप्रथम.