गीता के स्वर (18) संन्यास व त्याग के तत्त्व
काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास
और कर्मों के फल त्याग को
‘त्याग’
के रूप में परिभाषित करने की
प्रचलित धारणा है.
‘संन्यास’ व ‘त्याग’ की
धारणाएं हैं
अपनी-अपनी,
अशेष
पर ‘त्याग’ का सिद्धान्त है-
शास्त्र नियत कर्म का त्याग कैसे होगा ?
यह तो निषिद्ध है
देहधारी
कहाँ समर्थ है ?
समस्त कर्मों के त्याग में
वह तो कर्म करता है
स्वभावजन्य.
पर वह हो सकता है
सात्त्विक कर्मकार
राजस या फिर तामस
श्रेष्ठ कर्म तो
सिद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है.
सिद्धि को प्राप्त जीव
ब्रह्म को प्राप्त होता है
यह ईश्वर है
जो प्राणियों के
हृदय में स्थित हो
यन्त्रवत माया से घुमाता है
उसे चित्त में धारण करने से
‘माया’ का प्रहार नहीं होता
और मिलती है
‘परम शांति’
शाश्वत स्थान
इस ब्रह्माण्ड में.
और गीता के धर्ममय संवाद ने
इसके विविध रंग-रूपों के स्वरों ने
‘पार्थ’ को एक नई दिशा दी
‘अच्युत’ के संवाद प्रसाद से
मोह नष्ट हो गया.
इस रोमांचकारी संवाद ने
हर्षित कर दिया
गांडीवधारी को
सन्देहरहित हो गया
यह धनुषधारी
और धर्मयुद्ध की ओर उन्मुख हुआ
कुरूक्षेत्र में.