गिला – शिकवा
रेल तेज गति से जा रही थी रात के दो बज रहे थे लेकिन संध्या की आँखो से नींद कौसो दूर थी ।
तभी उसकी आँखो के आगे एक चलचित्र चल दिया :
” वह घर में इकलौती बेटी थी इशारा कर भर देने से उसकी इच्छा पूरी हो जाती थी । माता पिता के लाडदुलार में वह बहुत जिद्दी और घमंडी हो गयी थी । पढने लिखने के बाद सिविल सेवा में चयन होने के बाद वह डिप्टी कलेक्टर हो गयी । जब शादी की बात चली तब भी मेरा सोचना था समझौता कर तो लड़का करे वह क्यो झुके वह समर्पण नहीं करेगी । खैर सुबोध से उसकी शादी हो गयी वह बैंक में मैनेजर था ।
शादी के वैचारिक मतभेद शुरू हो गये
सुबोध बहुत संतुलित और समझदार व्यक्ति था लेकिन अपने अहं के आगे वह किसी भी मुद्दे पर झुकने को तैयार नहीं थी ।
इसी बीच उसका तबादला दिल्ली हो गया और सुबोध कानपुर में रह गया अब दो तीन महिने में कभी वह कानपुर आती तो कभी सुबोध
दिल्ली । खैर मैं समर्पण के लिए तैयार नहीं हो रही थी।
इस बीच एक दंगे की सूचना मिलने पर उसे नियंत्रित करने के लिए जाना पडा जहाँ वह घायल हो गयी सुबोध को जैसे ही मालूम हुआ वह दिल्ली आ गया और रात दिन सेवा और दवा करके मुझे ठीक किया । और वह कानपुर चला गया और मैने ड्यूटी ज्वाइन कर ली ।
फिर मैं कुछ दिन बाद कानपुर आ रही थी ।”
अचानक कोई स्टेशन आने के कारण रेल रुकी और मेरी तंद्रा भंग हो गयी।
पिछले बार जब मैं आती थी तब के और इस बार के कानपुर आने में बहुत अंतर था ।
मेरी विचारधारा सुबोध के लिए बदल गयी थी। अब सुबोध ही मेरा सब कुछ था । संध्या की यह यात्रा समर्पण वाली खुशहाल और अपनेपन वाली थी ।
संध्या को एक एक स्टेशन भारी लग रहे थे वह सोच रही थी जल्दी सुबोध मिल जाए और वह उसके सीने से लग कर सब गिलाशिकवा दूर कर ले
स्वलिखित लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल