गाए जा री बुलबुल
***शेर***
ना समझ है माली
फिर भी
शातिर है शिकारी
फिर भी
तेरे ख़िलाफ़ नाना
साजिशें
सदियों से हैं ज़ारी
फिर भी
***गीत***
तू गाए जा
अरी बुलबुल
गुनगुनाए जा
अरी बुलबुल
रोज़ कोई
न कोई गुल
खिलाए जा
अरी बुलबुल…
(१)
जुल्मतों के
आलम में
नफरतों के
मौसम में
गीत प्यार और
दोस्ती के
दोहराए जा
अरी बुलबुल…
(२)
मजलूमों और
महरूमों को
मुफलिसों और
महकूमों को
रंजो-गम की
शिद्दत में
बहलाए जा
अरी बुलबुल…
(३)
चाहे हो तू
पिंजरे में
या किन्हीं
ज़ंजीरों में
फिर भी अपनी
मस्ती में
बलखाए जा
अरी बुलबुल…
#Geetkar
Shekhar Chandra Mitra
#इंकलाबीशायर
#FeministPoetry