गांव !
कहीं एक गांव था मेरा
वो गांव मुझ से छूट गया,
आम,सखुआ, महुआ का
छांव मुझ से छूट गया।
एक शहर मिला था बदले में,
गलियां,सड़कें, चैराहे वो सारा राह,
छिटक कर दूर गया।
एक घर था शहर के सीने पे
ईंट का भीत, मिट्टी का आंगन,
कुछ अपने, सपने और लडकपन,
सबसे बरसों से जैसे,
संग साथ का नाता टूट गया।
अब हम हैं और पराया गांव शहर,
उस में अपना-पराया सा घर आंगन
जो देशी मगर अपना था सब रुठ गया
थोड़ा सा ‘सब’ बस मुझ में छूट गया !
…सिद्धार्थ …