गांव जैसा शहर कहां,
(गांव जैसा शहर कहां)
गांव की गलियों में जाओं,
शहर की सड़कें फीकीं पढ़ जाएगी,।
गांव के लोग खाने पीने को पूछेंगे आपसे,
शहर के लोगों को मीटिंग याद आयेगी,।
नहीं सो पाये होंगे मखबल गद्दे पर,
गांव की चारपाई पर न जाने कब आंख लग जाएगी,।
समस्या आ जाऐ अगर गांव के एक परिवार में,
तो गांव के लोग बारी बारी से पूछंनें आऐंगे,।
शहरों में पहुंच जाओं किसी के घर तो,
कब जाएं ऐ घर से आपिस में बतलाएंगे,।
शहर में न मिले ठंडक कूलर फिर्ज़ से,
गांव की चौपाल और घडे़ का पानी भाजाऐगा,।
नहीं रहती हाॅटलों की पार्टीयां याद,
गांव के दोस्तों के साथ खाई नमकीन पेप्सी याद आएगी,।
बदल जाते हैं लोग शहरों के स्वार्थ बस,
गांव में तो आज भी गलती करने वाले को माफ़ी देने का रिवाज़ पुराना हैं,।
शहरों में नहीं मिलती खुशियां मुफ्त में,
गांव के लोगों के पास तो उन्हें मुफ्त में देने का खज़ाना हैं,
शहरों में बहुत कम मिलते हैं रिस्तें प्यार के,
इसलिए तो ऐ जयविन्द गांव का दिवाना हैं,।
लेखक—–Jayvind Singh Ngariya ji