नकल में सहायता
मैं उस वक़्त तीसरी कक्षा में पढ़ता था। मुझसे बड़े भाई पास के उच्च विद्यालय में नौंवी के छात्र थे। बड़े होने का थोड़ा रौब भी रखते थे मुझ पर।
एक दिन उनकी वर्षिक परीक्षा के दौरान, उन्होंने मुझे बड़े प्यार से बुलाया और मेरे अलुमिनियम के बक्से, जिसे मैं स्कूल ले जाता था, में अपनी दो अंग्रेजी की पुस्तकें डाल दी और ये हिदायत भी दी कि स्कूल शुरू होने के ठीक एक घंटे बाद जब पहली घंटी बजेगी , तो ये किताबें लेकर उनके स्कूल के पिछले गेट पर पहुंच जाऊं, जहां मुड़ी, चपटी वाले का खोमचा लगा रहता है।
उस दिन,अपने स्कूल पहुंच कर मेरा मन पढाई मे बिल्कुल भी नही लग रहा था। रह रह कर मेरा ध्यान उनकी हिदायत पर और कान स्कूल की घंटी पर लगे हुए थे कि घंटी की आवाज़ आते ही अपने बक्से को लेकर मैं सरपट दौड़ पडूँ।
आज भाईचारा दिखाने और उनकी नज़र में उठने के इस मौके को , किसी भी तरह की लापरवाही से, मैं नहीं गंवा सकता था।
खैर , नियत समय पर घंटा बजा और मैं भी बताई हुई जगह पर एक कर्मठ सहायक की तरह पहुंचा बैठा था।
वे आये और अपनी पुस्तकों के कुछ पन्ने जल्दी जल्दी पलटने लगे, फिर लौटते वक्त अपनी जेब से 10 पैसे का सिक्का मेरे हाथ में थमा दिया।
उस पैसे की चने की चपटी का ठोंगा लेकर जब मैं
अपनी स्कूल की ओर लौट रहा तब इस विजयी भाव के साथ खुद को ये तर्क भी दिए जा रहा था कि भाई का सब पढ़ा हुआ तो था ही, वो तो बस पुस्तक के कुछ अंश दोहराने ही आये थे। चने की चपटी मेरे दांतो के बीच बजती हुई मेरी हाँ में हाँ मिला रही थी!!