आत्मग्लानि बोध से मुक्ति
वैसे तो अनूप एक सीधा साथ लड़का ही था। पढ़ने लिखने में भी ठीक ही था। सांतवीं की छमाई की परीक्षा हो चुकी थी। विद्यालय के मैदान में उसका एक सहपाठी और एक दो बड़ी कक्षाओं के बच्चे बैठ कर बात कर रहे थे कि कल छुप कर मैटिनी शो फ़िल्म देखी जाए। उन्होंने अनूप को प्रश्नवाचक नजरो से देखा कि वो भी चलेगा क्या?
अनूप के पहली बार में मना कर देने पर, एक बोल पड़ा , अरे तुम किससे पूछ बैठे, ये तो बच्चा ही बना रहने वाला है अभी कुछ वर्षों तक।
फिर सब कोई हंस पड़े।
बचपन में हर एक को ,जल्दी बड़ा बनने की ही पड़ी रहती है, अनूप भी अपनी हंसी उड़ती देख, बोल बैठा कि वो भी चलेगा। ये सुन कर सारे खुशी से उछल पड़े कि चलो एक और उनकी गैंग में शामिल हो गया।
विद्यालय रोज दो चरणों में चलता था। पहला चरण सुबह दस बजे शुरू होता, जिसमे चार पीरियड होते। फिर एक बजे लंच ब्रेक होता , जिसमे सारे छात्र और शिक्षक अपने घर चले जाते, फिर 2 बजे खाना खाकर लौट आते। उसके बाद चार बजे तक तीन पीरियड और होते ।
योजना यह बनी की कल, दूसरे चरण में सब अनुपस्थित रहेंगे और फ़िल्म देखने चलेंगे।
दूसरे दिन , सब एक जगह मिले,अपनी कॉपियों और पुस्तक को शर्ट निकाल कर पेट मे छुपा कर, फ़िल्म देखने पहुंच गए।
विद्यालय में, एक नियम और भी था कि कोई छात्र किसी दिन अनुपस्थित रहता तो उसे पांच पैसे जुर्माने के तौर पर देने होते , पर पहले चरण मे उपस्थित रह कर दूसरे चरण में अनुपस्थित होने पर यह जुर्माना २५ पैसा होता, उसको फ्लैट फाइन कहा जाता था।
शिक्षक भी छात्रों की इन करतूतों से वाकिफ थे इसलिए ये व्यवस्था की गई थी।
दूसरे चरण में रोल कॉलिंग अनिवार्य नहीं थी और कभी कभी ही होती थी, जिसकी पहल या तो शिक्षक खुद करते थे या फिर कुछ जले भुने छात्र शिक्षक को निवेदन करके करवाते थे।
अनूप के सहपाठी को अनुपस्थित देख, एक जले हुए छात्र ने , उस दिन रोल कालिंग करवा ही दी।
अनूप के तो सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए थे। बचाये हुए पैसे फ़िल्म देखने में खर्च हो गए और फीस भरते वक़्त माँ बाप से अतिरिक्त पैसों की मांग करने पर कारण बताना पड़ता।
दो दिन बाद ही फीस भी जमा करनी थी।
बंदा मुसीबत के वक़्त भगवान के पास ही जाता है, अनूप के घरवालों के पास तो खुद का एक छोटा सा मंदिर भी था, पिता उस मंदिर के पुजारी भी थे। कुटुंब द्वारा संचालित इस मंदिर में चार साल में एक बार ,एक साल के लिए उसके पिता को ये जिम्मेदारी मिलती थी। भाग्यवश ये वो ही साल था।
मंदिर सुबह और शाम खुलता था, पर मुसीबत में समय की परवाह किसे रहती है। हनुमान जी छोटी छोटी सलाखों के पीछे बंद दिखे ,एक ताला बाहर से लटका हुआ मिला। माथा टेक कर जैसे ही भगवान से आँख मिलाकर मिन्नते करने लगा, तो भक्तों द्वारा चढ़ाए कुछ सिक्के दिखे। चोरी करने को मन गवारा तो नही किया गया, पर संकट काल में और कोई चारा भी तो नहीं था। आसपास पड़े एक तिनके की सहायता से सिक्कों को अनूप अपनी ओर खींचने लगा। थोड़ी परेशानी हो रही थी,क्योंकि इस कार्य का अनुभव तो था नहीं ।
खैर कोशिश करके सिक्के निकल ही आये, भगवान भी आखिर पसीज ही गए। गिन कर देखा तो जुर्माने की रकम से कुछ ज्यादा ही थे। उसने ईमानदारी से अतिरिक्त पैसों को फिर भगवान को लौटा दिए।
फीस तो जुर्माने के साथ भरी गयी पर ये ग्लानिबोध कुछ समय तक उसके दिल पर बना रहा।
एक दिन एक संत आये हुए थे तो माँ के कहने से उनके साथ हो लिया। सत्संग में बैठते ही अमृत वचन उसके कान में पड़े कि सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है, उनकी मर्जी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता।
ये सुनते ही , उसने सोचा, उसे भगवान ने ही फ़िल्म देखने को राजी किया था, ये उनकी मर्जी ही तो थी, जुर्माने के पैसे भी फिर उनके ही बनते थे।
इस आत्मज्ञान के बाद ग्लानिबोध भी झट से उतरकर चलता बना।
पिता के मंदिर संचालन की जिम्मेदारी में अभी छह माह शेष थे।
अनूप भावी कुछ फिल्मों के नाम सोचने लगा जिसके पोस्टर उसने हॉल के बाहर लगे हुए देखे थे और ये भी सोच रहा था भगवान उसके दूसरे सहपाठी से जरूर किसी बात से नाराज चल रहे होंगे।
अब वह उसके साथ तो फ़िल्म देखने नहीं जाएगा।
कल जाकर वो इस बात की भी तहकीकात करेगा किस किस कक्षा में उस दिन दूसरे चरण में रोल कालिंग हुई थी, ताकि नया सुरक्षित गैंग बन सके।
वो अब धीरे धीरे खुद को थोड़ा बड़ा बनाने की कोशिश में जुट गया था।
सत्संग से मिली शिक्षा का विश्लेषण मजबूती के साथ उसके साथ खड़ा था!!!