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4 Aug 2020 · 2 min read

संबोधन

स्कूल के दिनों में बड़ी कक्षाओं के छात्र छात्राओं की हम पर थोड़ी धौंस तो चलती ही थी। उनके छोटे मोटे काम और आदेश मानना हम अपना कर्तव्य समझते थे।

कभी किसी को कॉपी किताब पकड़ानी हो तो हम छोटे ‘ फंटरो’ का इस्तेमाल करना वो अपना अधिकार समझते थे। इस शब्द का अर्थ तो नही पता था। बस , छोटे मोटे काम कर देने के लिए सदा हाथ के नीचे तैयार रहने वाला छोटे सहायक के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक उपहासात्मक शब्द प्रतीत हुआ।

अक्सर सुनने को मिलता था, अरे तुम कहाँ जाओगे यार, बैठो , इस फंटर को भेज दो। हम छोटे फंटर बिना किसी विरोध के उनका हुक्म बजा लाते थे।

पर हम उनको संबोधन करने में जाने अनजाने थोड़ी दूरदृष्टि रखते थे। अपने से दो कक्षा आगे तक के छात्रों को उनके पहले नाम से बुलाते (सिर्फ दो चार अच्छे छात्रों को छोड़ कर, क्योंकि उनसे पढ़ाई लिखाई में सहायता की उम्मीद रहती थी)

और उनसे बड़ों को भैया या दीदी कहते थे।

और यही परंपरा हम से छोटी कक्षा के छात्र भी अपनाते थे।

कारण यही था कि वो एक दो बार अगर फेल हो गए तो फिर आएंगे हमारी कक्षा में ही, तो अभी से इज्जत देकर कोई फायदा नहीं है।बाद में तो फिर उनसे भी बेतकल्लुफ होना ही है।

इन समीकरणों में कभी कभी अपवाद भी निकल आते थे, मसलन
मेरे बड़े भाई के दोस्त जो करीब ५-६ साल बड़े थे। जिनको मैं समीर “दा “(बंगला मे अपने से बड़ों को संबोधन के लिए सम्मान सूचक शब्द) बुलाता था। फेल होकर पांच साल पढ़ाई छोड़ दी।

फिर कॉलेज में मेरे साथ पढ़ने लगे। कुछ दिन तो उनके साथ वही पुराना “दा” जुड़ा रहा। पर इनसे उनको दिक्कत होने लगी क्योंकि क्लास के बाकी के छात्र जो उनसे अनजान थे, कौतूहल से देखते थे।
उन्होंने खुद ही कह दिया कि यार तुम नाम से ही बुलाया करो।

Language: Hindi
2 Likes · 4 Comments · 239 Views
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