सुधार अभियान
उस जमाने में चावल, गेहूँ, दाल, गलत संगति में पड़ने के कारण अक्सर जब घर आते थे कमबख्त बिगड़े हुए ही आते थे।
अब इसमें इनकी कोई गलती होती थी या तो वो खुदरा दुकानदार ही बिगाड़ के भेजता था, या फिर गल्ले का व्यापारी या मंडी में इनके साथ जोर जबरदस्ती की जाती, ये जांच का विषय था।
मतलब ये कि, इनकी जात के साथ छेड़खानी होती जरूर थी, और ये भी ढीठ बच्चों की तरह अपने दुष्ट साथियों के साथ ही घर घुसते थे। धूल, मिट्टी, कंकर इनमे छुपे रहते थे।
एक निश्चित मात्रा में मिलावट तो स्वीकार्य होती थी , इसकी लक्ष्मण रेखा लांघते ही ,घर की महिलाएं अपनी पैनी अनुभवी दृष्टि से फ़ौरन ताड़ लेती थी और पूछ बैठती थी, कहाँ से लाये हो। दुकानदार का नाम पता चलते ही ,उसको कोसना चालू करने के बाद, सामान लाने वाले की खबर ली जाती थी।
एक योग्य पुरुष का पहला लक्षण उसके घर के सामान लाने की चतुराई देख कर ही होती है । ये समझ मे आने लगा था।
नहीं तो, ये तो बड़े भोले हैं जी, दुकानदार जो पकड़ा देता है ये बैल की तरह सर पर उठाये ले आते हैं।
मेरे एक पड़ोस के सीधे साधे सरकारी मुलाजिम को तो ये भी सुनने को मिला, कि अगली बार जब सामान लाने जाये तो उस भाईसाहब को साथ लेकर ही जाए। उनको अकल है कि चीज़ें कैसे लायी जाती है और उनसे सीख भी लेना।
ये समझदार भाईसाहब आस पड़ोस में अपनी इस प्रतिभा के लिए मशहूर थे।
बेचारे सरकारी मुलाज़िम को महसूस जरूर होता होगा कि वो कितने अहमक पैदा हुए हैँ।
कभी कभी लाया हुआ सामान उनको वापस करने जाना पड़ता था तो बड़ी बेइज्जती सी महसूस होती होगी , दुकानदार आता देख मुस्कुरा पड़ता था। समझ जाता था कि घर में आज जम कर पड़ी है।
वो बोल पड़ता, मैंने तो पहले ही कही थी पंजाब वाली दाल दे दूँ,आपने कुछ कहा नहीं , सो मैंने लोकल दाल पैक कर दी।
लाने वाला बेचारा ये सोच रहा था कि ये बात इसने कही कब थी।
फिर एक दिन उस भाईसाहब से साथ इन बेचारे को जाना पड़ा रास्ते भर उनके रौब चले। अरे रुको यार एक पान खा लूं , तुम तो भागे ही चले जा रहे हो या फिर किसी परिचित के मिलने पर , इशारा करके कहते , इनको घर के सामान खरीदने की ट्रेनिंग दे रहा हूँ, वगैरह।
दुकान पर पहुंच कर , ये भाईसाहब पहले तराजू के पलड़ों के नीचे हाथ फेर कर ये तय कर रहे थे की कोई चुम्बक तो नही लगा रखी , फिर वजन को हाथ से उठाकर देखा, सामान को अच्छी तरह परखने के बाद , सामान तौल कर कागज के ठोंगे में जब डाला गया । तब उनके झोले से अपना तराजू प्रकट हुआ, वो दुकानदार को कहने लगे, एक बार इस पर तौलो तो जरा। दुकानदार उनको खा जाने वाली नज़रों से देखने लगा।
मुझे ये तो नही मालूम, उनकी ये ट्रेनिंग कितने दिनों चली।
गौरतलब है कि,लाये हुए सामान का शुद्धिकरण तो चुग बीन कर होता ही था ,घर के मर्दों को भी उलाहना देकर, ठोक बजाकर सुधार ही लिया जाता था।
आज जब खाने पीने की चीज़ों को शॉपिंग मॉल में जब साफ सुथरी प्लास्टिक की सीलबंद पैकेट्स में देखता हूँ तो गांव के उस चतुर दुकानदार का चेहरा याद आ ही जाता है। जो कहता हुआ सुनाई देता है, आप ये ले जाओ, मेरी गारंटी है।
साथ मे उन समझदार भाईसाहब का तराजू अब भी आंखों के सामने बरबस ही आ जाता है।