ताश के पत्ते
गांव में एक ननकू चाचा थे, जिनकी एक पान की दुकान थी।
लोगों का उनकी दुकान के पास जमावड़ा लगा रहता था। गांव से लेकर देश मे क्या हो रहा है , सारी बातों की जानकारी उनकी दुकान पर उपलब्ध हो जाती थी।
हम बच्चे उनकी दुकान पर खट्टी मीठी गोलियां लेने जाया करते थे।
चाचा की एक खास बात ये भी थी कि उनको जुआ खेलने की लत थी। चाहे वो बरसात कब होगी पर दांव लगाना हो या ताश के पत्ते का जुआ हो, उनका कोई सानी नही था।
बरसात के जुए में ये शर्त होती थी कि एक निश्चित समय अंतराल में एक खास मकान की छत पर लगी ,जल के निकास के लिए बनी लोहे की नाली से अगर पानी नीचे गिरने लगता तो उसको “नाली सही” होना कहा जाता था।
दांव इसी बात पर लगते थे कि “नाली सही” होगी या नहीं?
इस खेल के और भी कई तकनीकी पहलू व विविधताएँ थी जैसे लगातार कई दिनों तक निर्धारित समय अंतरालों पर “नाली सही” होना वगैरह, वगैरह।
चाचा बादलों की तलाश में गांव की हर दिशा में ,दो तीन किलोमीटर दूर तक भी चले जाते थे और अनुमान लगा लेते थे कि ये बादल गांव तक कब पहुंचेंगे।
उनको छोटे मोटे बारिश वैज्ञानिक का रुतबा हासिल था। लोग दांव लगाने से पहले ये जरूर पूछते थे, ननकू चाचा ने क्या कहा है?
रात मे, चाचा हर रोज , पेट्रोमैक्स की लाइट में, किसी के बरामदे में, ताश का जुआ खेलते हुए मिल जाया करते थे।
एक दिन, दुर्भाग्यवश इसी पेट्रोमैक्स को जलाते वक़्त इसके फटने की वजह से उनके हाथ बुरी तरह जल गए। कई दिनों तक वो बिस्तर पर रहे।
फिर कुछ दिनों बाद वो दुकान पर दिखे, जख्म अभी तक पूरी तरह भरे नहीं थे।
किसी ने उनसे पूछा कि चाचा अब तबियत कैसी है?
चाचा ने मासूम सा जवाब दिया, बस भैया “जइसन तइसन कइके,ताश का तेरह पत्ता हाथ से पकड़ लेते हैं अब”
पूछने वाला चाचा की जिंदादिली और भोलेपन पर हैरान था।
ताश का यह जूनून उनके जले हुए हाथों को ठीक करने में मरहम का काम कर रहा था!!!