प्रेम ऐसा भी
घर से कुछ दूर मजदूरी करने वाले और रिक्शाचालक छोटी छोटी झोपड़ियों में रहते थे।
बचपन में रोज घर के सामने से गुजरती वो दिख ही जाती थी बनठन कर रहती थी, रंग सांवला, ठिगना कद और भरापूरा शरीर था।
पता नहीं किसने उसको हेमामालिनी का नाम दिया। उसको अपने इस नए नाम से कोई ऐतराज नहीं था।
हम को देखकर मुस्कुरा के बतलाते हुए, गुजरते लोगों की घूरती नजरों से बेखबर, वो घरों में काम करने चली जाती थी।
उसके बच्चे नाक सुड़कते झोपड़ी के बाहर खेलते रहते थे।
पति विनोद दुबली पतली कद काठी का था, रोज सुबह झोपड़ी के बाहर रखा अपना रिक्शा निकाल कर गाँव की सड़कों पर निकल जाता था।
फिर जब दोपहर को खाने के लिए घर लौटता तो देसी शराबखाने से गले मिलकर ही आता।
इसी बात को लेकर दोनों में झगड़े भी होते। पति से मार खाकर , पास के इज्जतदार घरों में पति को गालियाँ देते हुए , रोते ,बिलखते हुए शिकायत करने भी पहुँचती थी।
दूसरी सुबह फिर सज संवर कर काम पर निकल जाती।
किन्तु ,पति के साथ किसी दूसरे का झगड़ा होने पर वो पति की ओर से मोर्चा संभाल लेती थी।
ये सिलसिला सालों तक चला। कई बार लड़ झगड़कर पास ही अपने मायके भी गई, फिर दो चार दिन बाद विनोद के गिड़गिड़ाने पर , उसके रिक्शे पर बैठ कर गर्वित होकर चली भी आती।
बाद में बेटे बेटी जब जवान हो गए , तो बाप की इन हरकतों का विरोध भी करने लगे।
अमूमन , हर झोपड़ी का लगभग एक ही किस्सा था। लड़ने झगड़ने की आवाज रोज आती रहती थी।
विनोद समय से पहले बूढा दिखने लगा था, रिक्शा भी अब कभी कभार ही चला पता था। रोटी और शराब के लिए हेमामालिनी
पर निर्भर था , कभी कभी बेटे भी पैसा दे दिया करते थे।
दिनभर झोपड़ी के बाहर खटिया पर सोया या बैठा हुआ दिख जाता था। उसके तेवर नर्म पड़ गए थे। अब तो हेमामालिनी शेरनी सी बनी उस पर गुर्राती रहती थी। फिर दया आने पर पल्लू में बंधे एक आध रुपये उसके हाथ में धर ही देती थी।
पैसे हाथ में आते ही अपनी खटिया से उछल कर वो अपने अड्डे की ओर लगभग दौड़ पड़ता था।
कुछ दिनों बाद शरीर और कमजोर होने लगा , शराबखाने तक जाने में भी सांसे फूलने लगी, तो एक दिन देखा काम से लौटी हेमामालिनी ने अपने झोले से शराब की बोतल निकाल कर पकड़ाई और गालियों की बौछार करते हुए खाना बनाने में जुट गई।
विनोद को अब उसकी गालियाँ बिल्कुल भी बुरी नहीं लगती, वह बड़े प्यार से उससे पूछता, ग्लास कहाँ रखा है ?
अपनी खटिया में बैठ कर ऐसा लीन हो जाता कि जैसे गालियां नहीं कोई फिल्मी गीत चल रहा हो। शराब पीते पीते उसकी गर्दन भी उसी अंदाज में हिलने लगती।
एक दो बार गालियों के प्रसारण के समय मैं उधर से गुज़रा तो विनोद मेरी ओर देखकर मुस्कुराया और बोल पड़ा ” आमार पुरोनो रेडियो थेके की मिष्टी गान शोना जाछे ना”(मेरे पुराने रेडियो से कितना सुरीला गाना सुनने को मिल रहा है ना) , इतना सुनते ही गालियाँ और तेज होने लगती।
दूसरे दिन हेमामालिनी, फिर शराब लेकर ही लौटती।
बहुत सालों बाद एक बार गाँव लौटा तो पता चला विनोद और उसका बड़ा बेटा भी मर चुके है।
हेमामालिनी अपने पोते को गोद में लिए एक फटी साड़ी पहने दिखी। मेरी और देखकर वो मुस्कुरायी,
पूछने लगी शहर से कब आये?
मैंने उसके हाथ में दो सौ रुपये पकड़ा दिए, उसने दुआ दी।
तभी एक २७-२८ बरस की लड़की गुजरी।
हेमामालिनी ने मेरी ओर देखते हुए कहा , इसको पहचान रहे हो?
मैंने कहा नहीं।
तब उसने उसके बाप का नाम बताया और कहा “एई मेये टा एखोन सोलो आना”(ये लड़की सार्वजनिक संपत्ति हो गयी है),बोलकर हँस पड़ी।
फिर गंभीर होकर बोली, बाबू ये गांव अब ऐसा नहीं रहा जैसा छोड़ कर गए थे।
खुद ही कहने लगी, कि इसका भी क्या दोष , माँ तो बचपन में गुजर गई थी, बाप को शराब निगल गयी।
अपने पोते को देखकर बोली, इसका बाप भी चला गया। जब तक जिंदा हूँ, इसकी देखभाल करूँगी।।