आवृत्ति पाठ
दुर्गा पूजा के समय पूरे सप्ताह उत्सव का माहौल बना रहता था। महालया के दिन सुबह सुबह वीरेन्द्र कृष्ण भद्र की ओजस्वी वाणी में रेडियो पर चंडी पाठ शुरू होते ही एक नई ऊर्जा का संचार शुरू हो जाता था। ये देवी पक्ष शुरू होने की दस्तक होती थी, जिसका हर साल सबको इंतजार रहता था।
पूजा के पंडालों के नजदीक दिनभर तरह तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम चलते रहते थे। जिसमें हर आयु वर्ग के लोग बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे।
एक प्रतियोगिता चल रही थी, रविन्द्र नाथ ठाकुर की प्रसिद्ध रचना “दो बीघा जमीन” का पाठ करना था।
“शुधू बीघे दुइ, छिलो मोर भुई, आर सोबि गेछे रिने”
(सिर्फ दो बीघा जमीन बची थी मेरे पास, बाकी सब कर्ज की भेंट चढ़ गई)
लंबी कविता थी, प्रतियोगी एक एक करके आ रहे थे और भाव के साथ इसका पाठ कर रहे थे।
तभी मेरे ट्यूशन क्लास का १४ वर्षीय सहपाठी अमर भी मंच पर आया,
उसने भी आवृति पाठ शुरू किया, शायद पहली बार मंच पर चढ़ा था, कविता के बीच में कहीं अटक गया, उसने याद करने की कोशिश की ताकि प्रवाह बना रहे, पर आगे के शब्द याद नहीं आ रहे थे, सर भी खुजाया कि कहीं बालों में शब्द अटके पड़े हों। पर ये चेष्ठा भी व्यर्थ गयी। फिर एक पराजित प्रतियोगी की तरह वो बोझिल कदमों से मंच से उतर गया।
कुछ लोगों को ये स्तिथि हास्यस्पद भी लगी और वो बोलने से भी नहीं चूके कि जब ठीक से कविता याद ही नहीं थी तो मंच पर गया ही क्यूँ?
वह धीरे धीरे मंच के पीछे एक वीरान कोने में गया , अपनी जेब से एक कागज का टुकड़ा निकाला जिसमें वो कविता लिखी हुई थी, दुबारा उस भूले हुए अंश को देखने लगा। फिर कागज के टुकड़े को जेब के हवाले कर दिया।
अब उसे दोस्तों और जानने वालों की उपहास भरी मुस्कुराहटों और फिकरों का इंतजार था। अपनी नाकाम चेष्टा की कीमत तो देनी ही थी। उसने सब की बातें सुनी , आहत भी हुआ , एक फीकी हंसी का हाथ पकड़े रहा, जो उसको टूटने से बचा रही थी।
दूसरे दिन एक और प्रतियोगिता थी “गो एज यू लाइक” (जैसा चाहो वैसा वेश बना लो), वो अर्धनारीश्वर के वेश में मुस्कुराते हुए फिर हाज़िर हो गया था और इस बार तृतीय विजेता घोषित हुआ।
ये उसकी पहले की हार का पूरा मुआवजा तो नहीं था, पर वो लड़खड़ाते वक़्त जमीन पर हाथ टेक कर बैठने की बजाय अपने पांवो से ही संतुलित होना चाह रहा था।
ये कोशिश यकीनन प्रथम होने से भी ज्यादा कीमती थी।
बहुत सालों बाद, मैं भी किसी मंच पर कुछ बोलने के लिए चढ़ा, माइक पकड़ते वक्त मेरे भी हाथ कांपे थे, सैकड़ों निगाहों का बोझ होता है अपने ऊपर!!