रेलगाड़ी और गोल
आज गांव के मैदान में दूर के एक छोटे से गांव बांदवान की फुटबॉल टीम के साथ मैच था।
दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मैदान के पूर्वी छोर से बांदवान के खिलाड़ियों ने मैदान की मिट्टी को छूकर माथे से लगाते हुए फुटबॉल को एक दूसरे को पास देते हुए उत्तर के दिशा के गोल पोस्ट की ओर जाकर एक गोल दाग दिया।
यही क्रम हमारे गाँव के खिलाड़ियों ने भी किया।
फिर रेफरी की सिटी को सुनकर एक दूसरे के आमने सामने एक कतार में खड़े हो गए। हाथ मिलाकर दोनों दलों के खिलाड़ियों ने अपनी अपनी पोजीशन ले ली। दोनों दल के गोल रक्षक भी अपने अपने गोल पोस्ट के डंडे पर अपना सर रख कर प्रणाम करते हुए, अपनी जगह पर खड़े हो गए।
रेफरी की सिटी के साथ खेल शुरू हुआ। दोनों टीम जी जान लगाकर खेल रही थी। कड़ा मुकाबला था।
हाफ टाइम तक मैच बराबरी पर था। कोई भी टीम दूसरे की रक्षा पंक्ति को भेद कर गोल नहीं कर पाई थी।
पांच सात मिनट के अंतराल के बाद पानी पीकर और आयोजकों द्वारा वितरित की हुई च्यूंगमो को मुँह मे डाल कर, खिलाड़ी छोर बदल कर फिर खड़े हो गए।
रेफरी की सिटी के साथ खेल शुरू हो गया,
मैदान के पूर्वी और पश्चिमी दिशा की रेखाओं के पास दोनों लाइनमैन झंडी लेकर इधर उधर मुस्तैदी से दौड़ रहे थे।
मैच अभी भी कांटे का था।
खेल खत्म होने के दस मिनट पहले हमारी टीम के दो फॉरवर्ड बॉल लेकर आगे बढ़ रहे थे। इसी बीच मैदान के पश्चिमी ओर कुछ दूर बिछी रेल की पटरियों पर एक मालवाहक रेल गुजरने लगी।
बांदवान की टीम ने शायद पहली बार रेलगाड़ी देखी थी। उसके खिलाड़ी मैच को भूलकर रेल को गुजरता हुआ देखने लगे। उनका ध्यान बंटा देखकर हमारे खिलाड़ियों ने गोल कर दिया।
दर्शक उनकी इस बेफकूफ़ी और देहातीपन पर हंस रहे थे और अपनी टीम के गोल देने पर तालियाँ बजा रहे थे।
तभी दर्शकों बीच बैठे एक बुजुर्ग व्यक्ति की आवाज़ आयी।
“एई भाभे गोल टा देवा किन्तु ठीक होलो ना”(इस तरह गोल देना ठीक नहीं हुआ)। दर्शकों के जीत के जश्न में वो आवाज़ कहीं दब के रह गई।
मैंने पीछे मुड़कर उस आवाज़ को तलाशने की कोशिश की।
घर लौटते हुए पराजित टीम के उदास खिलाड़ियों और गोल रक्षक की भींगी हुई आंख मुझे कचोट रही थी!!!