कूट भाषा
विद्यालय के दिनों में कुछ खास मित्रो से किसी दूसरे के सामने जब कोई जरूरी या गुप्त बात करनी होती थी,तब हम एक कूट भाषा का प्रयोग करते थे ताकि मित्र तो बात झट से समझ जाएं पर दूसरों को इसकी भनक भी न लगे।
वैसे आँखों के इशारे या उँगलियों या हाथ को एक विशेष अंदाज में हिलाकर या सीटियां बजाकर भी संकेत दिए जाते थे।
पर इस कूट भाषा का भी अपना एक अलग मजा था उन दिनों ।
कूट शब्द भी सरल थे।
मसलन, किसी से अगर ये पूछना होता था कि
तुम कहाँ जा रहे हो?
तो ये कहा जाता था, ‘तुसपुम कसपहां जासपा रसपहे होसपो”
मूल शब्द के बीच में “सप” जोड़ दिया जाता था। अब ये सप, सपा, सपी, या सपे होगा , इसका निर्धारण उसके आगे के अक्षर की मात्रा पर निर्भर करता था।
जैसे कि तू – तूसपु, तुम -तुसपुम, हो – होसपो
हमे चूंकि तीन भाषायें हिंदी, मारवाड़ी और बांग्ला बोलना आता था तो हम किसी भी भाषा में मौके के अनुसार इसका इस्तेमाल कर लेते थे।
बचपन में ये कूट भाषा काम बहुत आती थी। जो हमारे इस नई भाषा के दल में शामिल होना चाहता , उससे गुरुदक्षिणा लेकर फिर इस भाषा की दीक्षा दी जाती थी।
आज जब ये बात अचानक पुरानी यादों से निकली तो मन में ये विचार आया कि हमारे गांव को इसका” जी आई टैग” या “जियोग्राफिकल इंडिकेशन सर्टिफिकेशन” मिल सकता है क्या?
क्योंकि हमारे प्रदेश को “रसगुल्ले” का तो मिल ही चुका है।
अगर ये हो जाता है तो हम गांव वाले “समाजवादी पार्टी” (सपा)
पर भी मुकदमा दायर करेंगे, हमारी बचपन की विरासत को अपना नाम देने के लिए। क्योंकि इसके तो पक्के साक्ष्य मौजूद हैं कि हम इस पार्टी के बनने के बहुत पहले से ही “सपा” शब्द का इस्तेमाल अपनी कूट भाषा में करते रहे हैं।