गांव के प्राथमिक हिंदी विद्यालय
चूंकि मेरा गांव बिहार (अब झारखंड) की सीमा के बिल्कुल नजदीक बसा हुआ है, इसलिये हिंदी भाषियों की संख्या भी अच्छी तादाद में थी।
मेरा जिला पुरूलिया और धनबाद, किसी जमाने में बिहार(अब झारखंड ) के मानभूम जिले के ही दो हिस्से थे। आजादी के बाद ये दो जिले बनाये गए, जिनमें से पुरुलिया जिला पश्चिम बंगाल का हिस्सा बना।
हम हिंदी भाषियों के लिए उस समय दो सीधे साधे सरकारी प्राथमिक विद्यालय और चार पांच खतरनाक किस्म के निजी प्राथमिक विद्यालय थे।
मेरे विद्यालय, श्री भजनाश्रम प्राथमिक विद्यालय को,पहले एक मिडिल स्कूल का दर्जा प्राप्त था। बाद में जब इसी नाम से एक उच्च विद्यालय का निर्माण हुआ , तो मेरा विद्यालय कक्षा ४ तक की शिक्षा तक ही सीमित हो गया।
तब से एक नई रोचक रिश्तेदारी भी शुरू हुई।
मेरे विद्यालय को “छोटी भजनाश्रम” और उच्च विद्यालय को “बड़ी भजनाश्रम” के नाम से पुकारा जाने लगा।
बात अब, उन खतरनाक किस्म के निजी विद्यालयों की करते हैं, जिसमे आधे से अधिक के संचालन करने का सौभाग्य , मेरे ही कुटुंब के लोगों को प्राप्त था।
जिनके नाम तो कुछ और ही रहे होंगे, पर ख्याति इन नामों से प्राप्त थी-
मोहन मास्टर जी की स्कूल,मदन पंडित जी की स्कूल, नंदा महाराज जी की स्कूल और शिवदुलार मास्टर जी की स्कूल और मुन्ना मास्टर जी की स्कूल
इन निजी विद्यालयों की खासियत ये थी कि ये पढ़ाई के अलावा छात्र सुधार गृह भी थे।
कुछ माँ बाप अपने उदंड बच्चों को सीधा करने लिए भी इन विद्यालयों में भेज कर चैन के सांस लिया करते थे।
घर से विद्यालय की नजदीकी भी इन विद्यालयों में प्रवेश का एक कारण जरूर रही होगी।
शिक्षकों की नियुक्ति इन विद्यालयों में उनकी मारक क्षमता के हिसाब से होती थी। सीधे साधे ,मृदुभाषी शिक्षक इन विद्यालयों के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थे।
छात्रों का इन विद्यालयों में रोते बिलखते पहुंचने के बाद और इनकी गिनती हो जाने के बाद,
उन अनुपस्थित डरे हुए बच्चों को एक एक करके, हमारे चचेरे भाई राधेश्याम मास्टर जी पीटते और घसीटते हुए विद्यालय के द्वार तक छोड़ कर, फिर दूसरे बच्चे की तलाश में फौरन निकल पड़ते।
ये भी उल्लेखनीय है, ये स्कूल में पढ़ाते नही थे, पर बच्चों को कहीं से भी घेर कर लाने की इनकी प्रतिभा के कारण इन्हें भी ‘शिक्षक’ की मानद उपाधि प्राप्त थी।
ये दृश्य अन्य बच्चों को भी अनकहा सा सबक होता था कि वो ऐसा दुःसाहस करने का सोचे भी नहीं
इन विद्यालयों के छात्र पढ़ाई में तो निपुण होते ही थे, साथ में मुर्गा बनने की कला में भी, हम सरकारी विद्यालय के बच्चों से मीलों आगे थे।
इनका ये चार साल का अनुभव , उच्च विद्यालय में शिक्षकों की मार झेलने में भी बहुत सहायक रहता था। ये हंसते हंसते अपने पर पड़ने वाली छड़ियों को यूं झेल जाते थे कि जैसे कह रहे हों, ये भी कोई मार है!!
इन विद्यालयों में एक ‘छुट्टी बन्द” की परंपरा भी थी,( जिससे हम बचे हुए थे) कि उदंड और गृहकार्य नहीं करके लाने वाले बच्चों को विद्यालय की छुट्टी होने के बाद भी विद्यालय में ही बंद रखा जाता था, फिर बच्चों के माँ- बाप की मिन्नतों और आश्वासन के बाद ही रिहा किया जाता था।
मैं खुद भी एक दुर्घटना के कारण सिर्फ एक दिन के लिए इनका छात्र रह चुका हूँ।
हुआ यूं कि मैं अपनी भतीजी विनीता जो इनमे से एक विद्यालय के “बच्चा क्लास”(KG) मे पढ़ने का गौरव हासिल कर चुकी है, को अपने विद्यालय जाते हुए , साथ लेकर बस छोड़ने गया था कि एक शिक्षक ने डांट कर मुझे उसके ही विद्यालय में बड़ी कक्षा में पढ़ने बैठा दिया था!!!
आज भी अपने बड़े बुजुर्गों द्वारा मेरा सरकारी विद्यालय में दाखिले के निर्णय का,
मैं तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ।।।