गांवों की सिमटती हरियाली
आज यह केवल मेरा अनुभव नहीं है, आपका भी होगा, जिसे हम आप महसूस भी करते हैं और फिर नज़र अंदाज़ कर अपनी राह हो लेते हैं।
यूं तो गाँव जाना कम ही हो पाता है, फिर भी अब गांव जाना होता है, तो सबसे पहले गांव के बाहर तालाब के पास लगे आम के तीन बड़े पेड़ गायब दिखते हैं। आगे चलकर गांव से सके पड़ोसी के बाग का सिर्फ निशान पर है। यही नहीं पास ही मेरे अपने बाग में भी एक दो पेड़ अपनी व्यथा कथा कह रहे हैं। कुल मिलाकर मेरे गांव के एक तरफ तीन चार फलदार पौधों के बाग थे, जो अब सिर्फ कहने के लिए ही रह गए हैं। लगभग हर घर के दरवाजे पर एक दो पेड़ आम, नीम, अशोक, आंवला के होते थे। जिनका बहुद्देशीय उपयोग था। गर्मियों में अधिसंख्य बड़े बुजुर्गो और बच्चों का समय उन्हीं की छाया में बीतता था। बिजली का साधन ही नहीं था, बावजूद इसके इतनी गर्मी भी हरियाली के कारण नहीं होती थी। मिलने जुलने आने वालों, आगंतुकों के लिए भी वे वृक्ष अपनी शीतलता से गप्पें हांकने और नींद पूरी करने का स्रोत थे। और तो और रात्रि में भी पेड़ों के नीचे सोने का अपना सुख था। मिट्टी के खपरैल और फूस के घर थे, जिन पर मौसमी सब्जियों की लताएं अपनी उपस्थिति दर्ज कराती थी। इस पास की खाली जगहों पर भी विभिन्न प्रकार की हरियाली के दर्शन होते थे। जिसका दर्शन भी अब दुर्लभ होता जा रहा है।
शहरी संस्कृति और सुविधाओं ने भी गाँवों की हरियाली छीनने में बड़ा योगदान दे रही हैं।ऊपर से विभिन्न कारणों/बहानों से गाँव खाली हो रहे हैं, बल्कि कहें उजाड़ हो रहे तो ग़लत न होगा।
सिर्फ इतना कहने पर से कि गाँवों में हरियाली सिमटी जा रही है, से हम दोष मुक्त नहीं हो जाते। हम अपनी जिम्मेदारियों से भाग कर अपने लिए कुआं और खाई जैसी स्थिति ला रहे। इतना ही नहीं पेड़ों को आधार मान कर होने वाली तमाम रीतियां, मान्यताएं, परंपराएं भी औपचारिकता की भेंट चढ़ती जा रही हैं। जिसके फलस्वरूप भी हरियाली का अस्तित्व खो रहा है।कोविड के दौरान हुए कटु अनुभवों के बाद भी हम आप सचेत होने के बजाय हरियाली मिटाने पर आमादा हैं।शहर तो शहर, गाँव भी हमारी, आपकी उदंडता का दंश झेलने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश