गाँव से लौट कर
शायद कुछ ही लोग
अब वहाँ पहचानते हों मुझे,
इतना अरसा भी तो
बीच से गुजरा है।
वो पुराने वक़्त के बुजुर्ग
जो नसीहत व
दुआएँ देते थे,
वो तो कब के जा चुके
चिरपरिचित चेहरे
भी अब कहाँ रहे,
जो दिन रात हँसते
बोलते थे।
नए लोगों की अनगिनत
पौध,
गुजरती है
अजनबी सी ।
पर अब भी ,
कुछ मकानों के
बूढ़े हुए बंद दरवाजों
को खोल कर
अंदर जाना चाहती
है निगाहें,
अतीत की चंद
यादें तलाशने।
शुक्र है,
कुछ
मोटे दरख्त, गलियाँ और
रास्ते ,
अब भी ठीक वैसे
ही हैं,
तसल्ली के लिए।
और बारिश में
भींगी मिट्टी की महक,
नीम के पेड़
की, पुरानी सी खुशबू समेटे हुए
वो हवा,
अब भी दिलासा देतें हैं,
कि वो कभी नहीं
बदलेंगे।
इस जमीन में
मेरी जड़ें बहुत
अंदर तक फैली हैं,
नमी तलाश ही लेंगी
सूखी आँखों के लिए !!