गाँव की पुकार
**देहात की पुकार**
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देहात की पुकार है,
देहात की गुहार है,
सूर्यास्त देहात का,
देहात अब लाचार है।
गाँव हैं बुझे बुझे से,
शर्म से झुके झुके से,
पलायन है जोरों पर,
जो जा रहे गद्दार हैं।
ताजी समीर छोड़कर,
जमीन जमीर तोड़कर,
ठीकरे सारे फोड़कर,
वश में नहीं विचार है।
पनघट सुने सुने हुए,
बीते सारे तराने हुए,
अपने बेगाने हुए,
बजती नहीं झंकार है।
चौक चबूतरे मौन हैं,
हँसी ठिठोली गौण हैं,
नीम , पीपल यही रहे,
डूबता हुआ संसार है।
ताल तलैया सुख गए,
प्रेम प्यार हैं छूट गए,
चौपालें हुई वीरान सी,
स्वार्थों भरे विकार हैं।
मनसीरत मन मार के,
दशा ,व्यथा निहार के,
कह रहा है दहाड़ के,
देहात हुआ बीमार है।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)