ग़ुलिश्तां में नये पौधे, लगाना भी ज़रूरी है ।
दरिन्दों से परिन्दों को, बचाना भी ज़रूरी है,
ग़ुलिश्तां में नये पौधे, लगाना भी ज़रूरी है ।
दिखे मंज़र भयानक ही, लगे अब आइना झूठा,
लुटेरों के नक़ाबों को , हटाना भी ज़रूरी है ।
दरख़्तों की घनी छाया, पथिक आराम हैं करते,
पसीने की सज़ी बूँदें, सुखाना भी ज़रूरी है ।
मिले दो जून की रोटी, न कोई आबरू बेचे,
हक़ीकत हो यही सपना, दिखाना भी ज़रूरी है ।
कभी ‘अंजान’ राहों में, चलो तुम सावधानी से,
कुएँ गहरे बड़ी खाई, बताना भी ज़रूरी है ।