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9 Feb 2018 · 1 min read

ग़ुलिश्तां में नये पौधे, लगाना भी ज़रूरी है ।

दरिन्दों से परिन्दों को, बचाना भी ज़रूरी है,
ग़ुलिश्तां में नये पौधे, लगाना भी ज़रूरी है ।

दिखे मंज़र भयानक ही, लगे अब आइना झूठा,
लुटेरों के नक़ाबों को , हटाना भी ज़रूरी है ।

दरख़्तों की घनी छाया, पथिक आराम हैं करते,
पसीने की सज़ी बूँदें, सुखाना भी ज़रूरी है ।

मिले दो जून की रोटी, न कोई आबरू बेचे,
हक़ीकत हो यही सपना, दिखाना भी ज़रूरी है ।

कभी ‘अंजान’ राहों में, चलो तुम सावधानी से,
कुएँ गहरे बड़ी खाई, बताना भी ज़रूरी है ।

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