ग़रीबी
बड़ी जालिम है ये गुरबत लड़कपन को रुलाती है
थमाकर बोझ जीवन का वो दर – दर पे घुमाती है
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वो नन्ही एक हस्ती जो बिछड़ कर आज खुशियों से
कमाने पैसे दो पैसे जो फुग्गे लो चिल्लाती है
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रहा है बेच गुब्बारे था जिनसे खेलना उसको
ये कैसी बदनसीबी जो के ऐसे दिन दिखाती है
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ये कच्ची उम्र है उसकी अभी खेले ओ खाने की
खिलाने बाप – माँ को वह ——जो रोटी लेने जाती है
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ये भारत का है मुस्तक़बिल छानता खाक़ गलियों की
हुए हैं हुक़्मरां अन्धे नज़र कुछ भी न आती है
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न मक़्तब पाठशाला न -विद्यालय क्या है क्या जानें
मिलेगी किस तरह रोटी यही चिंता सताती है
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अमीरों एक दिन को ही गरीबी झेल तुम तो
रहे न फिर गरीबी जो वतन में मुस्कुराती है
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सँजोएँ किस रह सपने कभी ऊपर ये उठने की
शबो- दिन तो इन्हें “‘प्रीतम”‘ ये किस्मत आजमाती है।।