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9 Oct 2018 · 1 min read

ग़ज़ल

ग़ज़ल “अनबुझी प्यास”
बह्र 1222×4
काफ़िया-आ
रदीफ़- जाओ

छलकते जाम बन कर आप नयनों से पिला जाओ।
महकते ख़्वाब बन कर आप नींदों में समा जाओ।

धधक रिश्ते यहाँ नासूर बन कर देह से रिसते
दहकते ज़ख्म पर फिर नेह की मरहम लगा जाओ।

घटा घनघोर छाई है तरस अरमान कहते हैं
बरसते मेघ बन कर प्यास अधरों की बुझा जाओ।

भरी महफ़िल दिवाने जिस्म का सौदा किया करते
झनकते पाँव के घुँघरू बिखरने से बचा जाओ।

कहे रजनी सँभालूं प्यार किश्तों में भला कब तक
खनकते दाम देकर आप किस्मत को सजा जाओ।

डॉ.रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका- साहित्य धरोहर

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