ग़ज़ल
“प्रीत के रंग”
प्रीत नैनों में बसा चाहत लुटाके देखना
बन हिना सूनी हथेली को रचाके देखना।
जानते हो पीर हरके कुछ सुकूँ मिल जाएगा
बन निवाला भूख दूजी तुम मिटाके देखना।
हर सफ़र आसान सा लगने लगेगा आपको
शूल राहों से हटा बगिया खिलाके देखना।
चाहतों में ज़ख़्म खाकर फूल से खिल जाओगे
दास्ताने ग़म कभी तुम गुनगुनाके देखना।
एक पल में लोग अपने से लगेंगे आपको
कुछ गुनाहों की सज़ा खुद को दिलाके देखना।
झूमते जन पाओगे बाहों में अपनी एक दिन
बैर सारे भूल जग अपना बनाके देखना।
मौत भी ‘रजनी’ तुम्हें सज़दा करेगी एक दिन
मजहबी मतभेद तजके उर लगाके देखना।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ.प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर