ग़ज़ल
हर दिन की गर सुबह है तो फिर शाम भी तो है।
मेहनत किया जो आपने इनआम भी तो है।
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चुपचाप काम कर गया गुमनाम सा रहा।
फेहरिस्त में शहीदों के पर नाम भी तो है।
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उसकी भलाई के लिए मै उस से दूर हूं।
मुझ पर ही बेवफाई का इल्जाम भी तो है।
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है इल्तेज़ा कि सामने बैठे रहो मेरे।
दीदार से महबूब के आराम भी तो है।
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आंखों में है खुमार भी,सर मस्ती ए बहार।
आंखें नहीं है मेरे लिए जाम भी तो है।
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मत भूल तुझे देख रहा हर घड़ी खुदा।
आगाज़ जुल्म का है तो अंजाम भी तो है।
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दिल तुमको है समझा रहा अब मान जा सगीर।
करना है उस से प्यार मगर काम भी तो है।