ग़ज़ल
काफ़िया- अर
रदीफ़- जाऊँ मैं
बह्र-122 122 122 12/22
वफ़ा की महक
उतर प्रीत दरिया उबर जाऊँ मैं।
वफ़ा की महक से सँवर जाऊँ मैं।
नज़ारे अगर साथ दे दें मेरा
नहा चाँदनी में निखर जाऊँ मैं।
मुझे डूबने की इजाज़त मिले
यही वक्त है के ठहर जाऊँ मैं।
तुम्हें देख कर दिल मचलता है क्यों
निगाहें मिली हैं किधर जाऊँ मैं।
तमन्ना यही इश्क में मर मिटूँ
तुम्हीं तुम नज़र में जिधर जाऊँ मैं।
मुहब्बत मुझे रास आती नहीं
डरे दिल न फिर से बिखर जाऊँ मैं।
कहे आज ‘रजनी’ जो दो साथ तुम
मुहब्बत में’ हद से गुज़र जाऊँ मैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर