ग़ज़ल
ना फूल महकता है ना ख़ार महकता है
इस दुनिया में सबका किरदार महकता है I
माली बनकर सींचे परिवार की बगिया को
उसके रिश्ते से ही घर द्वार महकता है ।
छपने को छप जाता झूठा भी तिजारत में ,
सच लिखने वाला तो अखबार महकता है।
सूरज की तरह चमके जो खुशबू किरणों में,
किरदार से इक केवल संसार महकता है।
जो जीत की ख़ुशबू है होती है ज़ुदा सबसे
मुरझाया गले का भी वो हार महकता है।
महका दे जो सबको ज़ज़्बात वो नज़रो की
आँसू का हर कतरा हर बार महकता है ।
हम बनके ‘महज़’ भँवरें मँडराते फूलों पर ,
हमको ये नही मालूम कि प्यार महकता है ।