ग़ज़ल
“कितना रुलाओगे”
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खड़ी तन्हा किनारे सोचती कैसे भुलाओगे।
करूँ फ़रियाद आ जाओ हमें तुम छल न पाओगे।
अनबुझे प्रश्न लेकर खोजतीं नज़रें जवाबों को
ज़माने के सवालों से कहो कैसे बचाओगे।
अधूरे गीत अधरों पर झुलाए कौन अब झूला
नज़र में कैद तस्वीरें सनम कैसे चुराओगे।
ग़मों की आग झुलसाए अभी तक होश बाक़ी है
चले आओ बने मरहम हमें कब तक सताओगे।
नहीं किस्से कहानी हो जिन्हें मैं भूल जाऊँगी
बने मेरा मुकद्दर तुम भला कैसे न आओगे।
तड़पती रात वीरानी सही जाती नहीं ‘रजनी’
बिछा दीं राह में पलकें हमें कितना रुलाओगे।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी।(उ.प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर