ग़ज़ल
आशिक़ी
रोग उल्फ़त का लगा हमको जगाया रातभर।
जाम चितवन का चख़ा हमको सताया रातभर।
प्रीत की तहरीर नज़रों से बयाँ की आपने
वार सीने पर किया आशिक़ बनाया रातभर।
इश्क में बीमार होना बदनसीबी बन गई
आशिक़ी ने ज़ख्म दे हमको रुलाया रातभर।
है मुहब्बत गर गुनाह तो ग़म नहीं इस बात का
गैर की बाहों में जा रुतबा दिखाया रातभर।
दे दलीलों की दवा ‘रजनी’ न समझाओ हमें
हीर राँझा बन ज़माने को दिखाया रातभर।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर