ग़ज़ल
मस्जिद से मयकशों को जो निकाल रहे हैं
महफ़िल में वो ख़ुद ही शराब ढाल रहे हैं
मुंसिफ़ का ओहदा भी वही चाहने लगे
जो ज़ुर्म की ज़िंदा यहाँ मिसाल रहे हैं
जो खेल करते आए सियासत के उम्र भर
मजहब की बागडोर क्यूँ संभाल रहे हैं
सबको पता है एक दिन डंसेगा वो ज़रूर
वो आज आसतीं मे जिसे पाल रहे हैं
वो हमको भुलाकर के जी रहे हैं मज़े में
हम याद में रो-रो के दिन निकाल रहे हैं
सच बोलने को किससे कहा जाए अब ‘चिराग़’
सब झूठ के सहारे पेट पाल रहे हैं