ग़ज़ल
कि इस घर के आगे मकाँ और भी हैं ।
अभी आपके इम्तिहाँ और भी हैं ।
उचित भाव से दे दो सामाँ, वग़रना
हमारे शहर में दुकाँ और भी हैं ।
बहारों पै तुम इतने मग़रूर क्यों हो ?
अभी ज़िंदगी में ख़िज़ाँ और भी हैं ।
तुम्हें इल्म़ है चाँद तारों का लेकिन,
फ़लक पै अभी कहक़शाँ और भी हैं ।
कहें शे’र जो मीर-ओ-ग़ालिब सरीखे,
अभी ऐंसे शायर यहाँ और भी हैं ।
— ईश्वर दयाल गोस्वामी ।