ग़ज़ल
काफ़िया-अत
रदीफ़-रहे
वज़्न-2122 2122 2122 212
मुफ़लिसी पे ए ख़ुदा तेरी सदा रहमत रहे।
भूख से मरते जनों के मुल्क़ में बरकत रहे।
चंद सिक्कों के लिए बिकता यहाँ इंसान है
मर गई इंसानियत ज़िंदा यहाँ सीरत रहे।
बाँट मजहब में वतन को भ्रष्ट सत्ता पल रही
दुश्मनों का साथ देने की नहीं नीयत रहे।
कस रहे हैं तंज पनपा कर दिलों में नफ़रतें
बढ़ चले हैवानियत ऐसी नहीं फ़ितरत रहे।
वारदातों का चलन ‘रजनी’ यहाँ दहशत भरा
काट बेड़ी बुझदिली की शौर्य की कीमत रहे।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
सम्पादिका- साहित्य धरोहर