ग़ज़ल
रोज़ जो आग हम जलाते हैं ।
रोज़ वो आग हम बुझाते हैं ।
आदमी चीज़ जो बनाते हैं ।
आदमी ही उसे मिटाते हैं ।
कोई दानिश अलग नहीं होता,
हम सभी सीखते – सिखाते हैं ।
जिन्दगी रोज़ ही गुज़रती है,
लोग आते हैं , लोग जाते हैं ।
खाक ने आजमा लिया हमको,
और हम खाक आजमाते हैं ।
०००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी