ग़ज़ल
सुलझी नहीं,उलझी रहीं ऐसी थी गुत्थियाँ
कर बैठे जाने कैसी-कैसी हम भी गलतियाँ,
जो छोड़ आईं प्यार अपना मोड़ पर किसी
बरसों बरस उदास रहीं ऐसी लड़कियाँ
खोता गया वजूद मेरा स्याह रात में
मैं सुनती रही देर तलक इसकी सिसकियाँ
उजड़ा हुआ, बिखरा हुआ, वीरान शहर है
आईं भी तो पछताएंगीं मौसम की आँधियाँ
जिन हादसों से गुज़रा है ये दिल का दरीचा
उस पर हैं बेअसर तमाम गिरती बिजलियाँ
कितना हसीन लगता है मंज़र तो देखिए
शाख़ों पे फूल, फूल पे बैठी ये तितलियाँ