ग़ज़ल
गहरे थे रिश्ते जो उनके रंग क्यों फीके मिले ।
रेशमी चादर के धागे रोज़ ही उधड़े मिले ।
आशिकी मासूक से हो या वतन की आन से,
इश्क में कुर्बानियों के कितने ही किस्से मिले ।
मैं तजुर्बे का ख़ज़ाना खोजता जिनमें रहा,
शख़्स कितने ही ज़हन से मुझको तो बच्चे मिले ।
सूख जाते ज़ख्म सारे इस बदन के, साथ से
क्या जरूरत है दवा की यार जब सच्चे मिले ।
कोसते हैं रोज़ मुस्तकबिल यहाँ पर आलसी,
करके मिहनत लोग कितने मुझको तो हँसते मिले ।
सच को पाना है मुसाफ़िर मुश्किलों का काम पर,
बस्तियों में झूठ की इंसान सब सहमें मिले ।
कैसे पहचाना नहीं “अरविन्द” तूने फर्क तक,
ज़िन्दगी के इस सफ़र में लोग जो अच्छे मिले ।
✍️ अरविन्द त्रिवेदी
उन्नाव उ० प्र०